Tuesday, July 1, 2008

गांव की स्त्री के साथ मैत्रेयी पुष्पा

मुझे अपना दु:ख और संघर्ष हमेशा याद रहता है: मैत्रेयी पुष्पा

मैत्रेयी पुष्पा हिंदी साहित्य के समकालीन महिला लेखन की सुपर स्टार हैं। बेतवा बहती है, इदन्नमम्, चाक, अल्मा कबूतरी विजन, कही इसुरी फाग जैसे उपन्यासों की लेखिका। बुन्देलखण्ड की ग्रामीण स्त्री का हृदय जिनके उपन्यासों व कहानियों में धडकता है। शांत, सौम्य, शिष्ट। चेहरे पर निरन्तर बनी रहने वाली मंदस्मिति के बावजूद आंखों में जीवट वाली ग्रामीण स्त्री जैसी चमक व दृढता।

कथाकार अमरीक सिंह दीप से उनकी बातचीत

आप पहली महिला लेखिका हैं जिसने गांव की स्त्री की व्यथा को पूरी शिद्दत और गहराई से जाना समझा और व्यक्त किया है। आपके उपन्यासों इदन्नमम्, चाक और अल्मा कबूतरी की नायिकाएं जितनी प्रगतिशील दिखाई गई हैं क्या वर्तमान समय में गांव-समाज की स्त्रियां वास्तव में इतनी बदल चुकी हैं?

देखिए, प्रेमचंद ने कहा है कि साहित्य समाज के आगे चलने वाली मशाल है। गांवों में कई ऐसी स्त्रियां हैं, कहीं मुझे विशफुल थिंकिंग नहीं दिखानी पडी कि ऐसा होना चाहिए ऐसा होगा..ऐसी स्त्रियां एकदम निखालिस कहीं नहीं हैं। यह मेरी कल्पना का आकार है। कुछ यथार्थ, कुछ कल्पना। अनुपात जरूर उसका फर्क-फर्क हो सकता है। कहीं यथार्थ अधिक, कहीं कल्पना ज्यादा। और वह जो स्त्री है वह एक हिम्मत और हौसला है। खुद को व्यक्त करने की क्षमता आ रही है स्त्रियों में। इतना मैं दिखा रही हूं, लेकिन जहां मुझे कमजोर लगता है वहां मैं अपनी कल्पना से, विशफुल थिंकिंग से, आकांक्षा से अपने सपने को सच करती हूं।

एक संपन्न परिवार की महिला होने के बावजूद कैसे आप बुंदेलखण्ड के गांवों की निम्नवर्गीय स्त्री की समस्याओं व पीडाओं को इतनी गहराई से समझ और व्यक्त कर लेती हैं? उसके मन की भीतरी पर्तो में दबे दु:ख से साक्षात्कार कर लेती है?

असल में दीप जी, लोगों को ऐसा भ्रम है कि मैं एक संपन्न परिवार की महिला हूं। जब मैं महिला हुई और उत्तर अवस्था की महिला हुई तब सम्पन्नता दिखने लगी। उससे पहले मैं विपन्न, कस्तूरी कुण्डल बसे तो पढा होगा आपने, बहुत विपन्न और बहुत निम्न मध्य वर्ग की लडकी थी। जिसके पास कोई सहारा नहीं था, गांव की लडकियों के पास जो रक्षा होती है वह भी नहीं थी। जिसके पास रहने के लिए घर नहीं था, जिसके पास पढने के लिए साधन नहीं थे..

ये सारी बातें आपकी स्मृति में कैसे संचित रह गई?

देखिए, आदमी सुख भूल जाता है दु:ख नहीं भूलता। संघर्ष नहीं भूलता। मुझे अपना दु:ख और संघर्ष हमेशा याद रहता है। इस बात को अगर मैं पलट दूं कि आदमी सारी उम्र भूल जाता है बचपन नहीं भूलता। तो बचपन ऐसी निश्छल चीज है जो अभी तक याद है। मेरा बचपन विपन्नता और संकटों में गुजरा। वही सब मेरे साथ रहा जिसे मैं साहित्य में ले आई।

इस वक्त आप क्या लिख रही हैं?

मैं अपनी आत्मकथा कस्तूरी कुंडल बसे का दूसरा भाग लिख रही हूं, क्योंकि वह बहुत जरूरी है। सोचा था, कभी न कभी लिखूंगी, लेकिन जो पाठक वर्ग का कहना है कि कस्तूरी कुण्डल बसे के बाद यह बताइये कि आप लेखिका कैसे बनीं? जो लडकी इस तरह की थी वह लेखिका कैसे बन गई? इतने बीहड से आकर। और मेरे लेखिका बनने से मेरी शादी का, मेरे पति का कोई सहयोग नहीं। यह तो मेरे अन्दर ही कुछ होगा.. होगा। उसी ने किया यह सब।.. लेकिन कैसे बन गई यही सब बताना है मुझे।

एक स्त्री के रूप में आप कैसा महसूस करती हैं? एक नामी डॉक्टर की पत्नी और हिन्दी साहित्य की एक प्रतिष्ठित लेखिका, इन दोनों रूपों के बीच में?

देखिए, डाक्टर की पत्नी मैंने खुद को कभी महसूस ही नहीं किया। यह ठीक कि मैं शादी करके आई हूँ। उन्नीस वर्ष में शादी हुई थी मेरी। शादी के एक वर्ष बाद के रोमानी दिनों की, अभी जब मैं पुरानी चिट्ठियां निकाल कर पढ रही थी, एक चिट्ठी में एक वाक्य है-कि मैंने तो साथी-सखा ढूंढा था। तुम तो मालिक हो गए।.. तो मुझे एकदम से लगा कि ये कीटाणु कब से रेंग रहे थे, कुलबुला रहे थे, जो मैंने यह लिख दिया।.. तो यह कि पत्नी कभी माना ही नहीं मैंने खुद को। इसे मेरे पति का दुर्भाग्य ही समझ लीजिए कि पत्नी की तरह कभी मैंने उनकी सेवा नहीं की। जैसे दूसरी पत्नियां करती हैं कि कहीं जा रहे हैं तो अटैची लगा दी, नहाने जा रहे हैं तो कपडे रख दिए, जो उनके कपडे प्रेस करती है। यह सब कभी नहीं किया मैंने और न पति ने इस बात की कभी शिकायत की। उन्होंने हमेशा खुद अपना काम कर लिया। उनके कहीं जाने पर जब मैं नहीं पूछती कि तुम लौट के कब आओगे तो लोगों को इससे बहुत शिकायत होती है कि वो जाते हैं तो तुम इतना तो पूछ लेती कब आओगे? उल्टा उनके जाने से मैं खुद को स्वतंत्र महसूस करती। सोचती कि अब मैं कुछ मन का करूंगी। कुछ गजलें सुनूगीं, कुछ ये सुनूंगी, कुछ वो सुनूंगी, कुछ मूर्खताएं और गल्तियां करूंगी। मतलब यह कि उन्मुक्त हो जाऊंगी। जैसे कि मालिक एक भार था जो हट गया है सिर से।

जैसे पेपरवेट उठ गया हो और उसके नीचे दबे पन्ने हवा में उडने लगे हों?

हाँ, इस तरह मैं उडूंगी, चाहे घर में ही क्यों न उडूं। हालांकि पति सोचते थे कि यह क्यों नहीं मानती। दूसरी स्त्रियों का उदाहरण भी देते थे मुझे। मैं कहती पता नहीं, मैंने तुमसे शादी इसलिए नहीं की। यूं हमारी लव मैरिज नहीं अरेन्ज्ड मैरिज थी लेकिन अरेन्ज्ड मैरिज भी मेरी मर्जी से हुई थी, लेकिन मैं तुमको पति मान कर नहीं आई थी। मैंने तो सोचा था कि कोई साथी मिलेगा।..तो यह समझ लीजिए कि मैंने पत्नी कभी नहीं माना अपने आपको। और अगर कोई लेखिका कहता है तो मैं संकुचा जाती हूँ। संकोच होता है कि मैं कहां की लेखिका।

मैत्रेयी पुष्पा से यह संवाद कर चकित हूं। सोच रहा हूं, क्या हंस के संपादकीय में वर्णित मरी हुई गाय ऐसी होती है? कितने गलत थे पुराने लोग जो कहा करते थे कि औरत तो बेचारी गाय होती है; जिस खूंटे से बांध दो बंध जाती है। नहीं, स्त्री गाय नहीं होती। वह भी एक इंसान है। एक संपूर्ण व्यक्तित्व। एक समग्र सत्ता।

5 comments:

सतीश पंचम said...

ईदन्नमम् मैने पढी है, काफी रोचक है, बऊ और उनकी पोती मन्दाकिनी की कहानी अपने आप में बहुत कुछ कह देती है। मन्दाकिनी और उसकी भागी हुई मां के मिलन के क्षण अद्भुत लेखन को दर्शाते हैं। हो सके तो मैत्रेयी जी के ई-मेल को दर्शाऐं।

Udan Tashtari said...

अच्छा लगा मैत्रेयी पुष्पा जी से दीप जी की बातचीत सुनना. आपका आभार इस प्रस्तुति के लिए.

कृप्या वर्ड वेरिफिकेशन हटा ले और मॉडरेशन चालू कर दें. सबको आराम रहेगा. आभार.

विजय गौड़ said...

आज १ अगस्त २००८ के अमर उजाला में "ब्लागकोना" पर आपके ब्लाग की पोस्ट पढी. आपकी सूचनार्थ कि अपने ब्लाग के जिक्र को अमर उजाला में देखें.

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

aaj achanak blog kii yatra karte-karte aapke blog par ja ghusa. achchha lagaa aapko dekh kar. main bhii aape peechhe-peechhe hoon.
http://kumarendra.blogspot.com

Anonymous said...

बहुत सार्थक लगी बातचीत. मैत्रेई जी को और पास से जानने का मौक़ा मिला. उनकी कहानी बिन्नी तुम किसकी हो अक्सर मुझमें अजीब सिहरन भर जाती है.