Tuesday, December 30, 2008

मोहल्ला से साभार


मानविंदर भिंबर उवाच:
शोभा जी, दिल की बात कह कर अच्छा ही किया... और सच भी यही है।

कुश उवाच:
बिल्कुल ठीक कहा आपने। यही सब तो हो रहा है।

अल्पना वर्मा उवाच:
बहुत ही आश्चर्य हो रहा है। सच मानें तो विश्वास ही नहीं कर पा रही हूं। दुःख भी है की हिन्दी भाषा के कारण ख्याति प्राप्त व्यक्ति कैसे ऐसी बातें कह सकता है? आप ने बेबाकी से यह बात कही और उनका व्यक्तित्व हमारी नज़रों के सामने भी आ गया। आभार।

रंजन उवाच:
ये तो शर्मनाक है।

रंजना उवाच:
इस सत्य को अनावृत्त करने और सबके सामने लाने हेतु बहुत बहुत आभार। चिंता न करें। साहित्य को अजायबघर पहुंचाने वाले ऐसे तथाकथित साहित्यकारों को अजायबघर में भी स्थान नही मिलेगा। स्वस्तुति करते करते ही स्वर्ग सिधारेंगे ये।

संजय बेंगाणी उवाच:
यह जरूर उन काला चश्माधारी ने कही होगी। घबराएं नहीं, हिन्दी को समय के साथ चलाने वाले युवाओं की कमी नहीं है, उन्हे इन बुजुर्ग की सलाह की आवश्यकता भी नहीं।

रजनीश के झा उवाच:
हिन्दी के पराभव के लिए ऐसे ही तथाकथित ठेकेदार तो जिम्मेदार हैं जिन्होंने हमारी हिन्दी माँ को नोच नोच कर खाया है और अब जिन्दगी के आखिरी पड़ाव पर अंग्रेजियत का चश्‍मा लगा कर हिंद की हिन्दी को आईना दिखा रहे हैं। स्याही की खूबसूरती को स्‍याह करने वाले ऐसे दुर्योधन को हिन्दी में जगह न दें, ऐसा अनुरोध करता हूं। आपके दर्द में बराबर का शरीक हूं।

अनुराग श्रीवास्‍तव उवाच:
हिन्दी के ऐसे अपमान से मैं भी आहत हूं। भाषा के विकास के लिये स्वरूप परिवर्तन की बात तो समझ में आती है, लेकिन इस तरह के वक्तव्य की नहीं।

मनु उवाच:
शोभा जी, कल का कार्यक्रम औपचारिक तौर पर सफल बता कर हम भी घर लौट आये थे। पर मन में वही सब कुछ चल रहा था, जो आपने उगला और हम से भी उगलवा दिया। इसके अलावा एक चीज और बेहद अखरी। डॉक्टर दरवेश भारती, जिन को मैंने कल पहली बार देखा और उनके दरवेश जैसे ही स्वभाव का कायल भी हो गया, पूरे कार्यक्रम में एक बिल्कुल गुमनाम आदमी की तरह केवल दर्शक बने बैठे रहे। किसलिए बांटी गयी उनकी किताबें??? क्या मंच पर बैठा कोई भी व्यक्ति ये नहीं जानता था कि जिस छंद शास्त्री की किताबें बांटी जा रही हैं, वो भी वहीं मौजूद हैं। सब जानते थे, पर उनसे दो शब्द कहलवाना तो दूर, उनका परिचय तक करवाना गैरजरूरी बात मान ली गयी। हालांकि उन्हें देख कर ही पता चल गया की उनकी तबीयत ऐसे किसी सम्मान की तलबगार नहीं है। वो हमारे मुख्य अतिथि जैसे तो बिल्कुल भी नहीं हैं ना। और न अन्य लोगों जैसे। फ़कीर जैसे लगे, जो वाकई हर हाल में साहित्य की सेवा कर रहा है। पर मुझे ये नज़रअंदाजी काबिले शिकवा लगी, सो कह दिया। आपने दिल हल्का करवा दिया। आपका शुक्रिया, वरना ये बेचैनी सिर्फ़ और सिर्फ़ अशआर में ढलकर रह जानी थी।

अविनाश उवाच:
संसार की सर्व श्रेष्‍ट भाषा की ऐसी प्रशंसा? हिंदी कब संसार की सर्वश्रेष्‍ठ भाषा हो गयी... और राजेंद्र यादव ने गलत क्‍या कहा... पुराने साहित्‍य और नये समय के अंतर्विरोध को समझाने की कोशिश की। आपलोगों को मजे और वाहवाही के लिए नहीं, बल्कि समाज का दर्पण बनने के लिए साहित्‍य रचना चाहिए।

अभी और भी..........

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...
अधिकांश टिप्पणियां यह ज़ाहिर करती हैं कि हम वही सुनना चाहते हैं जो हमारे मन में है. अगर हम दूसरों की वह बात सुनने को तैयार न हों जो हमारे सोच से अलग है, तो फिर हमारे विवेक खुले मन वाला होने का क्या प्रमाण हो सकता है? राजेन्द्र यादव ने ऐसा भी बुरा क्या कह दिया? क्या समय के साथ चीज़ों को बदलना नहीं चाहिये? मैं लगभग चालीस बरस से हिन्दी पढा रहा हूं और जानता हूं कि हमारे पाठ्यक्रम कितने जड़ हैं. चन्द बरदाई, कबीर, तुलसी, सूर, बिहारी, केशव सब महान हैं, अपने युग में महत्वपूर्ण थे, लेकिन सामान्य हिन्दी के विद्यार्थी को उन्हें पढाने का क्या अर्थ है? तुलसी, सूर, बिहारी की भाषा आज आपकी ज़िन्दगी में कहां काम आएगी? मन्दाक्रांता, छन्द और किसम किसम के अलंकार आज कैसे प्रासंगिक हैं? अगर हम अपने विद्यार्थी को इन सब पारम्परिक चीज़ों के बोझ तले ही दबाये रखेंगे तो वह नई चीज़ें पढने का मौका कब और कैसे पाएगा? मुझे इस बात की ज़रूरत लगती है कि चीज़ों पर खुले मन से विचार किया जाए, न कि रूढ चीज़ों की बेमतलब जुगाली की जाए.


विजयशंकर चतुर्वेदी said...
मैं दुर्गा प्रसाद अग्रवाल को अधिक नहीं जानता लेकिन मान रहा हूँ कि उनकी टिप्पणी अब तक आई टिप्पणियों तक सबसे अधिक महत्वपूर्ण है. राजेन्द्र यादव ने जो कहा वह वेद वाक्य नहीं है. लेकिन राजेन्द्र यादव इस देश के चंद शीर्ष बुद्धिजीवियों में से हैं. उन्होंने इस महादेश में जो बुद्धि के नए द्वार खोले हैं, बहस के नए प्रतिमान खड़े किए हैं वह बहस वैदिक सभ्यता के बाद वह अर्गल है. बजाए इसके कि हम उनकी बातों पर विचार करें आलोचना पर उतर आए. धिक्कार है ऐसे लोगो पर और.....!


शिरीष कुमार मौर्य said...
डी0पी0 अग्रवाल जी का अनुभव बोल रहा है। और कितना सार्थक बोल रहा है।विजय भाई ने भी इसे पहचाना ! आइए हम कुछ और लोग भी उसे पहचानें जो अग्रवाल जी कहना चाह रहे हैं।

Arvind Mishra said...
मैं शुरू से ही इस वाद में आने से कतरा रहा था -क्योंकि कथित /तथाकथित मठाधीशों से जुडी चर्चाओं से मुझे अलर्जी रही है -मैं तो एक बात ही शिद्दत के साथ महसूसता हूँ कि श्रेष्ठ साहित्य कालजयी होता है .अब आप नयी पीढी को क्या पढाएं क्या न पढाएं यह अलग मुआमला है मगर कबीर /तुलसी का साहित्य अप्रासंगिक नही हो जाता .और ये टिप्पणी कार महोदय तो धन्य ही है जो अपने जीवन के चालीस वर्ष बकौल उनके ही बरबाद कर चुके हैं और अब अपने फरमानों से आगामी पीढियों को बरबाद करने में लग जायेंगे .भाषा ,ज्ञान को करियर के काले चश्मे से देखने पर हम कहीं अपने जमीर से ही गद्दारी करते हैं सरोकारों से हटते हैं .बहुत कुछ लिखा जा सकता है मगर मैं हठात रोक रहा हूँ -अब राजेन्द्र यादव का खेमा दादुर धुन छेड़ रहा है !


संजय बेंगाणी said...
कुछ भी अलमारी में बन्द मत करो जी, नेट पर लाकर रख दो लोगो के सामने. सम्भव है इच्छा एक ही हो, अभिव्यक्ति अलग अलग हो.

ѕαηנαу ѕєη ѕαgαя said...
हिन्दी की अहमियत को इस तरह से नकारना और उसके दमन को नापाक करना !!निश्चित ही सर्मनाक है !!

Rajesh Ranjan said...
आलोचना से राजेन्द्र यादव को कतई परहेज नहीं होगा जैसा कि मैं उन्हें जानता रहा हूँ लेकिन हम दो-चार ब्लॉग लिखकर अपने को हिन्दी का सबसे बड़ा सेवक समझने वालों को जरूर कुछ लिखने के पहले समझना चाहिए हमारी बात किसे संदर्भ में लेकर कही जा रही है...वह व्यक्ति पिछले साठ वर्षों से सिर्फ हिन्दी में लिख -सोच रहा है...मुझे तो लगता है कि हिंदी को अधिक विचारशील बनाने में जितना यादवजी का योगदान है उतना किसी का नहीं...नहीं तो हिन्दी के ज्यादातर गोष्ठियाँ वाह रे मैं वाह रे आप के प्रतिमानों पर चला करती थी.


Taarkeshwar Giri said...
राजेंद्र यादव जी की चाहे आलोचना करी जाए या तारीफ वो तो जो कहना था कह गए, लेकिन सही नही बोले वो श्रीमान जी, यादव जी आप ख़ुद एक बहुत ही सम्मानिया पुरूष है , हमसे जयादा दुनिया देखी है आपने। क्या आप नही चाहेंगे की आने वाली पीढी आप के बारे मैं जाने , कैसे भुला सकते हैं हम अपने इतिहाश को, आपने जो भी कहा मैं ख़ुद उससे सहमत नही हूँ और मुझे ये भी पता है की मेरे सहमत होने या न होने से आपके उपर कोई फर्क भी पड़ेगा ।

4 comments:

आलोक साहिल said...

नमस्कार साथियों,
कुछ भी कहूँ उसके पहले माफ़ी
चाहूँगा की मैं आप सभी से बहुत छोटा व कम अनुभवी हूँ,कम्हिंदी पढ़ी है,शायद इसलिए भी की मैं शुरू से ही विज्ञानं कविद्यार्थी रहा हूँ.
मैं उस मौकेपर मौजूद था जब राजेंद्र जी ने ये बातें कहीं,.मुझे नहीं पता क्योंकर हंगामा खड़ा हो गया है.
मैं दुर्गा प्रसाद जी से बिल;कुल सहमत हूँ,आज जब हम हर क्षेत्र में आधुनिक हो जाना चाहते हैं ऐसे में ये क्या बेहद बेवकूफाना नहीं है की हम अपने आने वाली पीढियों को पुराने झोलों से भरते जाना चाहते हैं.
आलोक सिंह "साहिल"

महेन्द्र मिश्र said...

बहुत बढ़िया पोस्ट पढ़कर अच्छी लगी. धन्यवाद. नववर्ष की ढेरो शुभकामनाये और बधाइयाँ स्वीकार करे . आपके परिवार में सुख सम्रद्धि आये और आपका जीवन वैभवपूर्ण रहे . मंगल्कामानाओ के साथ .
महेंद्र मिश्रा,जबलपुर.

Vinay said...

नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ

अविनाश वाचस्पति said...

जो आपने कहना है आप कहें

जो दूसरा कह रहा है कहने दें

ब्‍लाग की आग का है मतलब यही

फिर क्‍यों इतना बहसियाना वहशियाना।