Tuesday, May 20, 2008

पुरुषवादः दफ्तर हो या घर


अपने ही घर में असुरक्षित महिलाएं

  • -मंतोष कुमार सिंह

भारत को आजाद हुए 60 वर्ष हो गए हैं। स्वतंत्रता के बाद भारत ने जाने प्रगति की कितनी सीढियां चढ ली हैं। अगर हम देखें तो विकास का पैमाना माने जाने वाला ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं बचा है, जहां भारत की पहुंच नहीं हो पाई है। इसमें सिर्फ देश के पुरुष ही नहीं बल्कि महिलाओं ने भी अग्रणी भूमिका निभाई हैं। आज कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं होगा जिसमें महिलाओं की भागीदारी हो। परंतु तेजी से बदलते सामाजिक परिवेश में भारतीय महिलाओं की दशा पूर्ववत बनी हुई है। केंद्र सरकार तथा राज्य सरकारें भी औरतों के जीवनस्तर में सुधार का प्रयास कर रही हैं, लेकिन इनका प्रयास सार्थक साबित नहीं हो पा रहा है। अमानवीय कृत्यों के चलते महिलाएं अपने ही घर में असुरक्षित हैं। राष्ट्रीय अपरा रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक वर्ष-2006 में औसतन हर घंटे 18 महिलाएं क्रूरता की शिकार हुईं और इससे भी परेशान करने वाली बात यह है कि इस तरह की घटनाओं में दिन-प्रतिदिन बढोतरी हो रही है। राज्यों के स्तर पर देखें तो वर्ष-2006 में महिलाओं के प्रति अपराध के मामले में आंध प्रदेश सबसे आगे रहा। वहां पर 21484 मामले सामने आए जो पूरे देश में होने वाले अपराधा का 13 प्रतिशत है। दूसरे स्थान पर उत्तर प्रदेश का नाम आता है जहां पर पूरे राष्ट्रीय अपराध के 9.9 प्रतिशत मामले सामने आए। हाल ही में राजस्थान के उदयपुर में एक ब्रिटिश पत्रकार के साथ बलात्कार और आर्थिक राजधानी मुंबई में नववर्ष की पूर्व संधया पर दो युवतियों के साथ छेडछाड की घटना ने एक बार फिर इस बारे में कठोर कानून की जरूरत महसूस कराई है। महिलाओं के प्रति अपराधा में हर वर्ष बढोतरी हुई है। 2003 से 2006 के बीच बलात्कार के मामलों में बढोतरी दर्ज की गई। दस लाख से अधिक आबादी वाले 35 शहरों में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली शीर्ष पर रहा। दिल्ली में महिलाओं के खिलाफ अपराधा के कुल 4134 मामले दर्ज किए गए जो पूरे देश में होने वाले अपराधा का 18.9 प्रतिशत है। दूसरे स्थान पर हैदराबाद रहा, जहां 1755 मामले दर्ज हुए। दिल्ली में होने वाले अपराधों में 31.2 बलात्कार के मामले, 34.7 अपहरण, 18.7 दहेज हत्या, 17.1 मामले में पतियों रिश्तेदारों द्वारा मारने-पीटने और 20.1 प्रतिशत मामले छेडखानी से जुडे हुए थे। ये वे तथ्य हैं जो उजागर हुए तथा जनता के सामने प्रस्तुत किए गए। उन घटनाओं की संख्या भी कम नहीं है, जिन्हें दबा दिया गया या लोकलज्जा के चलते उजागर नहीं किया गया। इन आंकडों से आप सहज अनुमान लगा सकते हैं कि आज की महिलाएं कितनी सुरक्षित हैं। इन घटनाओं से साफ जाहिर हो रहा है कि हमारी सरकारें महिलाओं के उत्थान के लिए जो कदम उठा रही हैं, क्या उन्हें उसमें सफलता मिल पाई है।
दूसरी ओर घर और दतर दोनों जगह महिलाएं भेदभाव की शिकार हैं। करीब तीन चौथाई महिलाओं का मानना है कि उनके पति उनके काम में हाथ नहीं बंटाते हैं। केवल एक चौथाई पति ही खाना बनाने, घर की सफाई करने और बच्चों की देखभाल करने में पत्नियों का हाथ बंटाते हैं। वाणिज्य मंडल एसौचैम की हाल ही में जारी रिपोर्ट में यह निष्कर्ष सामने आया है। समाज में महिलाएं पुरुषवादी मानसिकता और लैंगिक भेदभाव की शिकार हैं। यही कारण है कि उन्हें नौकरी में पदोन्नति नहीं मिलती। काम के बढ़िया अवसर नहीं मिलते और वे कार्यालयों में शीर्ष स्थान तक नहीं पहुंच पातीं। मात्र 3.3 प्रतिशत महिलाएं ही महत्वपूर्ण पदों पर पहुंच पाती हैं। 17.7 प्रतिशत महिलाएं तो बीच की श्रेणी के पदों तक पहुंच पाती हैं। जबकि 78.9 प्रतिशत महिलाएं जूनियर स्तर तक ही रह जाती हैं। एसौचेम ने 575 कामकाजी महिलाओं के सर्वेक्षण के नमूने के आधार पर यह आंकडे जारी किए हैं। शहर में रहने वाली 66.33 प्रतिशत महिलाएं नौकरी करना चाहती हैं। जबकि 52.84 ग्रामीण महिलाएं घरेलू पत्नियां ही बने रहना चाहती हैं। शहरों में 29.95 प्रतिशत तथा महानगरों में 18.24 प्रतिशत महिलाएं नौकरी करना चाहती हैं। महानगरों में 16.91 प्रतिशत महिलाएं अपना व्यापार करना चाहती हैं जबकि शहरी इलाकों में यह प्रतिशत 3.72 प्रतिशत और ग्रामीण इलाकों में यह प्रतिशत 2.34 प्रतिशत है। नौकरी की संभावना बढने के बावजूद महानगरों की 17 प्रतिशत महिलाएं स्वरोजगार करना चाहती हैं। 42 प्रतिशत महिलाओं का मानना है कि वे पुरुषों की तरह दफ्तर में ज्यादा देर तक नहीं रह सकतीं। लोगों से सम्पर्क नहीं बना सकती। इसलिए उन्हें पदोन्नति नहीं मिल पाती और 34.66 प्रतिशत महिलाओं का मानना है कि वे पारिवारिक कारणों से पुरुष की तरह दौड-धूप नहीं कर सकतीं इसलिए वे नौकरी में पिछड जाती हैं। 22 प्रतिशत ग्रामीण महिलाएं पारिवारिक जिम्मेवारियों में फंस जाती हैं जबकि शहरों में 19 प्रतिशत तथा महानगरों में केवल 9 प्रतिशत महिलाएं पारिवारिक जिम्मेदारियों से बंधी हैं। इससे स्पष्ट है कि आधुनिक पुरुषप्रधान समाज में नारी को द्वितीय पंक्ति में रखा गया है। जब हम पुरुष और नारी में भेद नहीं करते हैं तो क्यों नहीं औरतों को प्रथम पंक्ति में रखते हैं। महिलाओं को भी वे सभी अधिकार मिलने चाहिए जो पुरुषों को मिल रहे हैं। जहां तक क्षमता का सवाल है यह स्पष्ट हो चुका है कि महिलाएं प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों से आगे जा रही हैं, लेकिन हमारे समाज में नारी को वह स्थान नहीं दिया गया है, जो उसे मिलना चाहिए। समाज में नारी को पुरुष के साथ नीचे ओहदे पर रखा गया है, धारती पर आते ही लडके और लडकी के मधय अधिकांश परिवारों में भेद किया जाता है। लडकियों की शिक्षा तथा विकास पर पर्याप्त धयान नहीं दिया जाता है। यह सच है कि विगत कुछ दशकों की तुलना में वर्तमान समय में महिलाएं अधिकार संपन्न हुई हैं। पंचायत राज की विभिन्न स्तरीय संस्थाओं में आरक्षण मिल गया है। कुछ समय बाद लोकसभा और विधानसभाओं के चुनावों में भी आरक्षण मिल जाएगा, ऐसी आशा की जा रही है, लेकिन विगत कुछ वर्षों में महिलाओं पर हुए अत्याचार के आंकडों को देखा जाए तो सहज पता चल जाएगा कि महिलाओं की सुरक्षा कितना कठिन कार्य है। हमारा समाज नारी को वह स्थान नहीं दे पाया है, जो उसे मिलना चाहिए। आज महिलाओं के सामने असमानता सबसे बडी चुनौती है। नारी को इसके लिए अपनी चेतना को जगाना होगा। महिला उत्थान के लिए दो चीजें बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। महिलाओं के प्रति हमारे रुख में क्रांतिकारी परिवर्तन तथा पुरुष और नारी दोनों के लिए सार्वभौमिक शिक्षा। तभी हम नारी की स्थिति में परिवर्तन की आशा कर सकते हैं। औरतों पर हो रहे घटनाओं के कारणों की खोजकर अत्याचारियों को कडी से कडी सजा नहीं दी गई तो महिलाओं का वर्तमान और भविष्य अंधाकारमय होता चला जाएगा।