Sunday, June 1, 2008

बेटे ने दिया बालश्रम का नुस्खा

वाह रे आजादी! वाह रे मनमानी! वाह रे शर्तें! वाह रे बाल श्रम! वाह रे पारिश्रमिक! अभी से ये हाल है। आगे क्या होगा! राम जाने! छोटे मुंह बड़ी-बड़ी बातें। किसी और की नहीं। मेरे बेटे की। आज तो अपनी एक मामूली सी शर्त यानी यूं ही भुला दी जाने वाली बात से मेरी आंखें खोल दीं। मुझे अचकचा दिया। बिजली नहीं थी। अंधेरे में मैं उसे देर तक घूरती रही।उसकी अलबेली शर्त को सोच-सोच कर मुस्कराती और उसकी अक्ल के साथ जोड़ कर उसके भविष्य का हिसाब किताब लगाती रही। वाह रे मेरा बेटा! वाह-वाह!!
मैं सोचती रही कि अपनी जिंदगी, अपने सफरनामे के बारे में मैंने ऐसा हिसाब-किताब कभी क्यों नहीं लगाया! मैंने अपने भविष्य और अपने व्यक्तिगत श्रम के बारे में कभी इस तरह क्यों नहीं सोचा! खैर, इसके पीछे मेरे वर्तमान की अपनी वजहें हो सकती हैं। इसके वर्तमान में मैं हूं। मैं सीधे उसकी उस शर्त पर आती हूं, जो कहने-सुनने में तो मामूली लगती है लेकिन आप भी फकत गौर फरमायें तो उसकी तासीर सिर नचाकर रख देगी।


बेटा बोला...
मम्मी आज से मैं यूं ही आपकी बात-बात पर टहल नहीं बजाऊंगा। आपके छोटे-छोटे काम मेरा पूरा रुटीन बिगाड़ देते हैं।

मैंने पूछा....
वो कैसे?

बेटे ने कहा....
आप मिनट-मिनट पर कहती हैं. बेटा जरा पानी लाना, बेटा जरा टीवी स्टार्ट करना, बेटा जरा मोबाइल उठाना, बेटा जरा पापा को बुलाना, बेटा जरा पंखा चला देना, बेटा जरा मैग्जीन निकाल ले आना....बेटा जरा ये करना, बेटा जरा वो करना...मैं आजिज आ गया हूं आपकी इन छुटल्ली फरमाइशों से।

मैंने टोकते हुए पूछा..
तो तुम कहना क्या चाहते हो?


बेटे ने बेखटके कहा...
मम्मी आज से आपको और पापा को भी अपनी हर फरमाइश की कीमत अदा करनी पड़ेगी।

मैंने पूछा...
वो कैसे?

बेटा बोला....
मामूली फरमाइशों की कीमत भी मामूली होगी। जैसे ....पंखा चलाने के एक रुपये। फ्रिज से पानी ले आने के पचास पैसे। मैग्जीन या अखबार थमाने के एक रुपये। किचन से चाय ले आने के चार आने के हिसाब से सुबह-शाम की कुल चार चाय के दो रुपये। किसी को बुलाने के .. हर बुलावे का रेट होगा पचास पैसे। बाकी कामों के रेट आप ही तय कर दीजिए। मेरा रोजाना इतनी आमदनी से काम चल जाएगा।


मैंने अपना माथा ठनठनाते हुए कहा...
वाह बेटा, वाह! तुमने तो उस बालश्रम का पता-ठिकाना बता दिया, जिसका कोई नामलेवा नहीं था। तुमने नुस्खा दे दिया...बाकी श्रम विभाग और श्रम कानूनविद आगे का गणित लगाते रहे। ...और साथ ही, घरों में बच्चों पर अभिभावकत्व का तिलिस्म बघारने वाले गार्जियंस अपने-अपने गिरेबां में झांकते रहें कि वे निजी जीवन में कितने मानवीय हैं, कितने अमानवीय..अर्थात परजीवी!!!