Saturday, February 2, 2008

जब भी कोई प्यार का इजहार करता है


सभी वासनाएं दुष्ट नहीं होतीं।
सभी इच्छाएं उत्कट नहीं होतीं।
सभी प्रेम अविश्वसनीय नहीं होते।

जिस चुप्पी के साथ
ओस घास को नम करती है
धूप जिस दत्तचित्तता से
उसे सुखाती है
एक बेहद अशांत दुनिया में
हमने सोचा
ऐसे ही प्यार करने के बारे में
और बूढ़े हो गए।

प्यार करना
आसमान तक ऊपर उठ जाना
जैसे कि
जरूरी है
प्यार करते हुए
धरती पर रहना।

सबसे निश्चिंत
हम तब हो जाते हैं
जब
सबसे चौकन्ना होना चाहिए
जैसे कि
नितांत आत्मीय क्षणों में
सोचते हुए
या प्यार में डूबे हुए
और जंग का एक अहम मोरचा
हार जाते हैं।

एक अपरिचित परिवेश में
जहां
परिचित सिर्फ
अपना प्यार ही हो
आप अचानक विवश हो सकते हैं
या निपट अकेला!

प्रभु य़ीशु
इन सातों प्रेतात्माओं से मुक्ति दो
मेरा यौवन समर्पित है
तुम्हारे चरणों में
पर स्त्री हूं
पापों का प्रायश्चित
न करूंगी
यूं जीतेजी न मरूंगी।

स्री हूं
प्रेतात्माओं से मुक्त होकर
जी न सकूं शायद।
पापों का प्रायश्चित कर लूंगी
बार-बार।
बार-बार यौवन समर्पित है
तुम्हारे चरणों में
प्रभु यीशु
पर न छुड़ाओ
प्रेतात्माओं से मेरा साथ
न करों यूं मुझे अकेला
जीवितों की इस भयावह दुनिया में।

जिज्ञासा मरती है
मायूसी छोड़कर।
प्रेम मरता है
उदासी छोड़कर।

प्रयासों में होता है
एक अवश कर देनेवाला आकर्षण।
जब हम
किसी को प्यार करते होते हैं,
उसके वजूद को नहीं,
उसमें मौजूद निश्छल-हठी
कोशिशों के वजूद को प्यार करते होते हैं.
उसे संतोष होने लगता है
उपलब्धियों पर,
या इत्मीनाम,
और मरने लगता है हमारा प्यार।
कोशिशों से नाउम्मीद हो जाना
अपने किसी सबसे प्रिय को
खो देना है।

....और अंत में आम आदमी का प्यार

जब भी इस पृथ्वी पर कहीं
कोई एक बेहद आम आदमी
किसी से कहता हैः मैं तुम्हें प्यार करता हूं
तो दरअसल वह खुद को ही
विश्वास दिला रहा होता है
कि वह अभी भी प्यार करने की कूव्वत रखता है,
कि वह प्यार कर सकता है
दुनिया की तमाम विपत्तियों, तमाम संदेहों,
तमाम युद्धों, तमाम अनिश्चय
और तमाम बेगानापन के बावजूद।
उस समय वह खुद को
विश्वास दिला रहा होता है
कि वह सिर्फ खुद को ही नहीं
किसी दूसरे को भी चाह सकता है
और शायद इतना चाह सकता है
कि खुद को भूल सकता है.
जब भी कोई साधारण आदमी
कहता है मैं तुम्हें प्यार करता हूं
तो वह खुद से कह रहा होता है
कि वह अच्छाइयों से
प्यार करने की कूब्बत रखता है
(क्योंकि एक बुरा आदमी भी
बुराइयों से कभी प्यार नहीं करता,
वह उनका गुलाम होता है
और एक गुलाम
मालिक को कभी व्यार नहीं करता,
बल्कि अवश होता है उसके सामने)
....
जब भी कोई आम आदमी
अपने दिल की गहराइयों में छिपे
प्यार का इजहार करता है
तो वह बेहतर भविष्य के प्रति खुद को
आश्वस्त कर रहा होता है
या फिर वह.........
या फिर शब्दों के सही अर्थों तक
बेहद बेचैनी के साथ
पहुंचने की कोशिश कर रहा होता है।
(सभी कविताएं कात्यायनी के काव्य-संग्रह से)


....और अंत में कुछ स्त्री प्रश्न
-आज बुर्जुआ नारीवाद के विविध नये-नये रूपों और किस्मों का खूब बोलबाला क्यों है?
-नववामपंथी मुक्त चिंतक स्री-प्रश्न पर क्लासिकी मार्क्सवाद के अधूरेपन और यांत्रिकता को स्वीकारते हुए बुर्जुआ नारीवादियों के प्रति कृतज्ञता को ज्ञापित कर रहे हैं?
-स्री आंदोलन की स्वायत्तता की वकालत करते हुए आधी आबादी को जन-मुक्ति संघर्ष की ऐतिहासिक परियोजना से काटकर अलग करने का षडयंत्र क्यों किया जा रहा है?
-क्या बुर्जुआ नारीवाद की सभी किस्में उन उच्च-मध्यमवर्गीय स्त्रियों के हितों का प्रतिनिधित्व करती हैं जिनका स्वर्ग इसी व्यवस्था में सुरक्षित है?
-एनजीओ प्रायोजित नारीवादियों का एक हिस्सा स्त्रियों के उत्पीड़न के प्रश्न पर क्यों अलग जनसंघर्ष की मांग करता है?
-स्रीवादी स्री की पराधीनता के इतिहास और आधारभूत कारणों की पड़ताल करने से क्यों कतरा कर निकल जाते हैं?

Friday, February 1, 2008

ब्लॉगर सहेलियों से कुछ सवालःदो

...........वह कौन-सी जगह या घर है जहां नारियों की पूजा होती है और वहां देवता रमते हैं(यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता)?
...........दहेज लड़की वाले को देना चाहिए या लड़के वाले को? या दोनों में से किसी को नहीं?? या किसी एक को क्यों देना चाहिए?
...........क्या स्त्रियों की सबसे बड़ी नौकरी विवाह है?क्या इस नौकरी के लिए उन्हें अपने सारे पुराने रिश्ते तोड़ने पड़ते हैं?
............विवाह संस्था यदि जरूरी है तो उसकी रक्षा और पवित्रता का ठेका अकेले स्त्रियों को ही क्यों दिया जाना चाहिए?
............क्या पुरुषों के समान स्त्रियों का भी शिक्षा जन्म सिद्ध अधिकार नहीं होना चाहिए? क्या पुरुष स्त्री को उतनी ही शिक्षा देता है, जितना उसके स्वार्थ में बाधक न हो?
...........जब धर्म सबके लिए समान है तो जो धर्म नारियों के लिए है, वह धर्म पुरुषों के लिए भी क्यों अनिवार्य नहीं होना चाहिए?
............क्या यह बात सही है कि एक औरत की सबसे बड़ी दुश्मन औरत होती है, क्या ऐसा स्त्रियों के अल्प शिक्षित होने से होता है?
............क्या प्रेम एक भावना है जो दो दिलों को जोड़ता है, भाषा, जाति, धर्म और समुदाय जैसी सीमा रेखाओं से परे होता है?
.............क्या प्रेम सिर्फ देहजीवी अथवा कर्मकांडी पाखंडों का नाम है या मनुष्यता सर्वोच्च भावनात्मक स्थिति का नाम है?
............भूमंडलीकरण के इस दौर में मीडिया स्त्री को क्यों बाजार की पण्य वस्तु की तरह स्थापित कर रहा है, क्या इसका जोरदार विरोद नहीं होना चाहिए?

Wednesday, January 30, 2008

ब्लॉगर सहेलियों से कुछ जरूरी सवालः एक

1.क्या हिंदू-ला के नाम से प्रचलित ऐसे सभी धर्मग्रंथों के विरुद्ध संघर्ष छेड़ना जरूरी है, जो मनुष्य के प्राकृतिक अधिकारों का अपहरण करने का निर्देश देते हैं?
2.जिस दिन स्त्री अपनी उन्नति में पुरुष को बाधक मानने लगेगी, क्या उसी दिन, उसीक्षण वह भी बराबरी की उन्नति की भागीदार बन जाएगी?
3.मनुस्मृति के पांचवें अध्याय में पति को स्त्री का स्वामी और स्त्री को पति का दासी कहा गया है, और दुर्गुणों से भरे पति को भी देवता तुल्य मनना नारी का धर्म बताया गया है, यह कितना उचित है?
4.मनुष्यता की रक्षा के लिए क्या महिलाओं को पुरुष वर्चस्व के खिलाफ एकजुट होकर हर स्तर पर संघर्षरत नहीं होना चाहिए?
5.सदा-सदा के लिए पुरुष वर्चस्व समाप्त करने के लिए क्या यह आंदोलन पहले देश के स्तर पर फिर अंतरराष्ट्रीय मंच पर तेज नहीं किया जाना चाहिए?
6.क्या हिंदू, मुसलमान, ईसाई, पारसी, यहूदी, अमीर-गरीब सभी औरतें एक ही तरह से उत्पीड़ित नहीं की जा रही हैं?
7.क्या पुरुष जाति को शत्रु मानकर ही स्त्रियां स्वतंत्र हो सकती हैं?
8.नारी स्वतंत्रता के लिए इस सदी की नारी को किस सीमा तक पुरुष जाति को शत्रु मानना चाहिए?
9.रामचरित मानस और वाल्मीकि रामायण में सीता के प्राकृतिक माता-पिता के बारे में कोई सूचना क्यों नहीं मिलती?
10.क्या सीता ने कभी अपनी दासियों की वेदनाओं पर भी विचार किया था, नहीं तो क्यों?
11.भारतीय स्त्रियों को पहले संबंधों से मुक्ति चाहिए या उन परिस्थितियों से, जो उनकी ऊर्जा निचोड़ लेती हैं, जिससे उन्हें 18-18 घंटे घर-बाहर काम करते हुए देश-दुनिया के बारे में और कुछ सोचने करने का मौका ही नहीं मिलता?
12.क्या मौजूदा सामाजिक हालात स्त्री के शरीर को इतना नहीं निचोड़ लेते कि वह और कुछ करने लायक ही न रह जाएं?
13.स्त्री-स्त्री की बराबरी का मुद्दा ज्यादा बड़ा है या स्त्री-पुरुष की बराबरी का मुद्दा?
14.विकास की तमाम लफ्फाजियों के बीच क्या आज भी भारतीय जाति व्यवस्था में जो स्थान दलित वर्ग का है, वही घर-परिवार और समाज में स्त्री का नहीं?
15.अपने शरीर और कोख पर सिर्फ स्त्री का अधिकार हो, क्या इसे आंदोलन के एजेंडे का सबसे बड़ा सवाल नहीं होना चाहिए?

फिलहाल आज इन 15 सवालों को प्रस्तुत करते हुए संध्या गुप्ता की एक कविता के साथ अपनी बात समाप्त करती हूं-

मैं बंधी हूं पवित्र रिश्तों की डोर से
घिरी हूं शालीन सीमाओं में
मेरे चारों तरफ सुंदर शब्दों की रोशनी है
लेकिन यहां जो हवा है, उसमें रिश्तों की मिलावट है
और पानी में अशालीन तरलता
रोखनी की परछांई में असुंदर शब्दों की कालिख है
और हवा, पानी और रोशनी
जीवन की अनिवार्य शर्तें हैं।

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सवालों का सिलसिला जारी रहेगा, जारी रहेगा, चलता रहेगा!

Monday, January 28, 2008

बिटिया मत जनमो तुम

.................
मत जनमो
कि यहां कुछ भी नहीं है तुम्हारा...
सब धरती.....
सारा आसमान...
सारे पेड़.....
सारा जहान.....
कुछ भी नहीं है तुम्हारा बिटिया....
न ये सड़क
न ये घर
न ये स्कूल
न ये दफ्तर
नये ये पेड़
न ये सूरज
न ये चांद
न ये तारे
कुछ भी नहीं है तुम्हारा बिटिया....
न ये धूप
न ये बारिश
न ये धर्म
न ये देश
न ये संस्कृति
न ये शिक्षा
चंद लोगों के घर में सुख पाओगी
तुम बिटिया...

वो सुख जो
भिखारी के फेंके गए रोटी के टुकड़े सा है
इस घर से उस घर तक
खानाबदोशों सी
ढूंढोगी तुम अपना घर
अपने का सुकून
मगर नहीं
कहीं कुछ नहीं है तुम्हारा बिटिया....
या तो इस घर आने के लिए
या उस घर जाने के लिए
बिस्तर पर बिछने वाली
एक चादर सा रहा है
रहेगा अस्तित्व तुम्हारा...
जिसे
बेटवा
आदमी
तब इस्तेमाल करता है
जब खाली होता है
जब वक्त नहीं कटता है....
(कवयित्री अनुजा)