Monday, January 28, 2008

बिटिया मत जनमो तुम

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मत जनमो
कि यहां कुछ भी नहीं है तुम्हारा...
सब धरती.....
सारा आसमान...
सारे पेड़.....
सारा जहान.....
कुछ भी नहीं है तुम्हारा बिटिया....
न ये सड़क
न ये घर
न ये स्कूल
न ये दफ्तर
नये ये पेड़
न ये सूरज
न ये चांद
न ये तारे
कुछ भी नहीं है तुम्हारा बिटिया....
न ये धूप
न ये बारिश
न ये धर्म
न ये देश
न ये संस्कृति
न ये शिक्षा
चंद लोगों के घर में सुख पाओगी
तुम बिटिया...

वो सुख जो
भिखारी के फेंके गए रोटी के टुकड़े सा है
इस घर से उस घर तक
खानाबदोशों सी
ढूंढोगी तुम अपना घर
अपने का सुकून
मगर नहीं
कहीं कुछ नहीं है तुम्हारा बिटिया....
या तो इस घर आने के लिए
या उस घर जाने के लिए
बिस्तर पर बिछने वाली
एक चादर सा रहा है
रहेगा अस्तित्व तुम्हारा...
जिसे
बेटवा
आदमी
तब इस्तेमाल करता है
जब खाली होता है
जब वक्त नहीं कटता है....
(कवयित्री अनुजा)

4 comments:

Abhishek Ojha said...

दर्द को अच्छा समेटा है आपने कविता में, पर अभी भी बिटिया के जन्म लेने की जगहें ख़त्म नहीं हुई है वक्त बदल रहा है, और हमें आशा नहीं छोड़नी चाहिए ...

mamta said...

आपकी कविता ने हमें अन्दर तक हिला दिया।
क्या बेटी होना इतना बड़ा अपराध है ?

anuradha srivastav said...

xbotlसच कहा... कभी -कभी महसूस होता है आस-पास की विसंगतियों को देख कर........

गरिमा said...

अर्रे र्रे ये कह दिया

मत जनमो
कि यहां कुछ भी नहीं है तुम्हारा...

लेकिन बिटिया को भी कुछ पुछने का अधिकार है?


क्यूँ माँ
ये जीवन

तुम दर्पण

बन क्यूँ नही जाती

तुम मेरा सम्बल
कोई ना कर सके

मेरा उलंघन


कल तुम ही मुझे सीख दोगी
"वो सुख जो
भिखारी के फेंके गए रोटी के टुकड़े सा है
इस घर से उस घर तक
खानाबदोशों सी
ढूंढोगी तुम अपना घर
अपने का सुकून
मगर नहीं
कहीं कुछ नहीं है तुम्हारा बिटिया...."


क्यूँ माँ... क्या तुम नही हो
जो बन जाये मेरा बल

पकड़कर जिसका आँचल

बनाऊ मै अपना ये सारा जग