Wednesday, February 11, 2009

बाहों में जो टूट के तरसी


अलसाई सी सोनजुही बौराई सी
महुआ की ओस.
चिर पलाश की मादकता
या मुक्त तबस्सुम लाखों कोस.
छिपी उनींदी किरण पूस की
सप्तक की झन्क्रित उदघोष
शरद रत्रि की नीरवता
या रति की सुन्दरता का कोष .
जेठ दुपहरी की बदली
तुम निर्झर की छींटों का तोष
विधि ने हंस कर ही की हो
उस एक शरारत भर का दोष .
मेघों से जो रूठ के बरसी
हो ऐसी बरखा का रोष
बाहों में जो टूट के तरसी
भूली बिसरी खोई होश.