Saturday, February 16, 2008

औरत एक जरूरत?


औरत नहीं होती सिर्फ सुंदर वस्तुओं की उपमा
औरत नहीं होती सिर्फ पुरुषों की कल्पनाओं का हिस्सा
औरत नहीं होती सिर्फ प्रेम करने के लिए
और ना ही सजाने का कोई सामान....
.......इन सबसे बाहर भी है उसकी दुनिया.

औरत ब्लागर्स से कुछ जरूरी सवाल


- ब्लागिंग क्या निठल्लागिरी है?
-ब्लागिंग क्या दिमागी फितूरबाजी है?
-ब्लागिंग की दुनिया को औरत ब्लागर्स गंभीरता से क्यों नहीं ले रही हैं?
-छद्मनामा ब्लागर्स क्या यहां भी अपने भीतर के डर से त्रस्त हैं?
-इन सवालों पर चुप्पी, क्या इन सवालों को जायज ठहरायेगी?

Monday, February 11, 2008

एक विद्रोही स्त्री

इस समाज मे
शॊषण की बुनियाद पर टिके सम्बन्ध भी
प्रेम शब्द से अभिहित किये जाते है

एक स्त्री तैयार है मन-प्राण से
घर सभालने, खाना बनाने, कपडा धोने
और झाडू-बुहारी के लिये
मुस्तैद है पुरुष उसके भरण-पोषण मे

बिचौलियो के जरिये नही
एक-दूसरे को उन्होने खुद खोजा है
और इसे वे प्यार कहते है

और मुझे वेरा याद आती है
उसके सपने याद आते है
शरीर का अतिक्रमण करती विद्रोही स्त्री
उपन्यास के पन्नो से निकलकर
कभी कभी किसी शहर मे, किसी रास्ते पर दिखती है

विद्रोही पुरुष भी नजर आते है गुस्से से भरे हुए
राज्य के विरुद्ध, समाज के विरुद्ध
परम्परा और अन्याय के विरुद्ध

मित्रो, शक नही है इन पुरुषो की ईमानदारी पर
विद्रोह पर, क्रातिकारी चरित्र पर
किन्तु रोज़मर्रा की तकलीफो के आगे
वे अक्सर सामन्त ही सबित होते है
बहुत हुआ तो थोडा भावुक किस्म के, समझदार किस्म के
मगर सामन्त

फिर हम देखते है करुण और विषण्ण-
एक विद्रोही स्त्री का
समाज अपनी गुन्जलके कसता जाता है उसके गिर्द

जीवन के इन सारे रहस्यो के आगे
यह आधुनिक-पुरुष-प्रेमी लाचार हो जाता है
फिर भी अन्त तक वह विद्रोही रहता है
समाज को बदलने मे सन्लग्न

और एक विद्रोही स्त्री खत्म हो जाती है
उसके वि्द्रोह के निशान भी नही बचते
उसके चेहरे पर.

Sunday, February 10, 2008

तसलीमा ने कहाः एक कमरे में तिल-तिल मेरी हत्या कर रही है-धर्मनिरपेक्षता




जिस घर में मुझे रहने को बाध्य किया जा रहा है


इन दिनों मैं ऐसे एक कमरे में रहती हूं,
जिसमें एक बंद खिड़की है,
जिसे खोलना चाहूं, तो मैं खोल नहीं सकती,
खिड़की मोटे पर्दे से ढंकी हुई है,
चाहूं भी तो मैं उसे खिसका नहीं सकती।

इन दिनों मैं ऐसे एक कमरे में रहती हूं,
चाहूं भी तो खोल नहीं सकती,
इस घर के दरवाजे,
लांघ नहीं सकती चौखट।

एक ऐसे कमरे में रहती हूं मैं,
जिसमें किसी जीव के नाम पर
दक्षिणी दीवार पर
चिपकी रहती हैं दो अदद छिपकलियां।

मनुष्य या मनुष्यनुमा किसी प्राणी को
इस कमरे में नहीं है प्रवेशाधिकार।
हां, इन दिनों मैं एक ऐसे कमरे में रहती हूं,
जहां मुझे सांस लेने में बेहद तकलीफ होती है।

चारों तरफ कोई आहट भी नहीं,
सिर्फ और सिर्फ सिर टकराने की आवाजें।
नहीं देखतीं दुनिया के किसी मनुष्य की आंखें
गड़ी रहती हैं, सिर्फ दो छिपकलियों की आंखें।
आंखें फाड़-फाड़ कर निहारती रहती हैं,
पता नहीं, वे दुखी होती हैं या नहीं
क्या वे भी रोती हैं मेरे साथ, जब मैं रोती हूं ?

मैं ऐसे एक कमरे में रहती हूं,
जहां रहना मैं एकदम नहीं चाहती।
मैं ऐसे एक कमरे में असहाय कैद हूं।
हां ऐसे ही एक कमरे में रहने को
मुझे विवश करता है लोकतंत्र।

ऐसे एक कमरे में
ऐसे अंधेरे में, ऐसी एक अनिश्चयता, एक आशंका में
मुझे रहने को लाचार करता है लोकतंत्र,
एक कमरे में तिल-तिल मेरी हत्या कर रही है-धर्मनिरपेक्षता।
एक कमरे में मुझे असहाय,
निरुपाय किए दे रहा है-प्रिय भारतवर्ष।

भयंकर व्यस्त-समस्त मानस और मानसनुमा प्राणी,
पता नहीं, उस दिन भी उन्हें
पल-दो-पल की फुर्सत होगी या नहीं,
जिस दिन सड़ा-गला एक लोथड़ा या हड्डी-पसली
लांघेगी दहलीज।
आखिरकार, क्या मौत ही मुक्ति देगी?
मौत ही शायद देती है आजादी, चौखट लांघने की
उस दिन भी मुझे टकटोरती रहेंगी
छिपकली की दो जोड़ी आंखें।
दिन भर वे भी शायद होंगी दुखी उस दिन!

गणतंत्र के झंडे में लपेटकर
प्रिय भारत की माटी में
कोई मुझे दफन कर देगा, शायद कोई सरकारी मुलाजिम।
खैर, वहां भी मुझे नसीब होगी
एक अल्प कोठरी।
उस कोठरी में लांघने के लिए
कोई दहलीज नहीं होगी,
वहां भी मिलेगी मुझे एक अदद कोठरी,
लेकिन जहां मुझे सांस लेने में कोई तकलीफ नहीं होगी।

नजरबंद
कभी किसी दिन अगर तुझे होना पड़े नजरबंद,
अगर कोई पहना दे पांवों में बेड़ियां,
मुझे याद करना।
जिस कमरे में तुम हो, अगर किसी दिन
उस कमरे का दरवाजा अंदर से नहीं
बाहर से बंद करके कोई जा चुका हो,
मुझे याद करना।

पूरे मंजिले में कोई न हो, जो सुने तुम्हारी आवाज,
जुबान ताला-बंद, होंठ कसकर सिले हुए
तुम बात करना चाहते हो, मगर कोई नहीं सुनता,
या सुनता है, मगर ध्यान नहीं देता,
मुझे याद करना।

मसलन, तुम शिद्दत से चाहते हो
कोई खोल दे दरवाजा,
खोल दे तुम्हारी बेड़ियां, सारे टांके,
मैंने भी चाहा था,
गुजर जायें महीने-दर-महीने,
कोई रखे नहीं कदम इस राह,
दरवाजा खोलते ही जाने क्या हो-न-हो,
इसी अंदेशे में अगर कोई खोले नहीं दरवाजा,
मुझे याद करना।

जब तुम्हें हो खूब-खूब तकलीफ
याद करना, मुझे भी हुई तकली,
बेहद डरे-सहमे, तकर्कता से नाप-नापकर चलता हो जीवन,
एकदम से अचानक हो सकता है
नजरबंद, कोई भी, तुम भी!
अब तुम-मैं, सब एकाकार, अब नहीं कोई फर्क सूत भर भी!
मेरी तरह तुम भी इंतजार करना
तुम भी इनसानों का!
हहराकर घिर आता है अंधेरा
मगर नहीं आता कोई इनसान!