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(आज, जबकि संसद में सोमवार का दिन विश्व महिला दिवस के सौ साल एवं महिला विधेयक के नाते सबसे महत्वपूर्ण हो चला है, ऐसे में महिला आरक्षण पर 10 जून 2009 को लिखा गया सुपरिचित पत्रकार एवं लेखक राजकिशोर का यह लेख साभार raajkishore.blogspot.com से उद्धृत किया जा रहा है। जो समसामयिक मुद्दे पर हमें कई गंभीर सवालों से रूबरू कराता है।)
राष्ट्रपति जी ने संसद को संबोधित करते हुए अपनी सरकार का जो पहले सौ दिनों का कार्यक्रम पेश किया, उसमें महिलाओं को दिए जानेवाले आरक्षण से संबंधित दो महत्वपूर्ण घोषणाएं हैं। एक घोषणा यह है कि पंचायतों और नगरपालिकाओं की निर्वाचित सीटों पर महिलाओं का आरक्षण 33 प्रतिशत से बढ़ कर 50 प्रतिशत किया जाएगा और इसके लिए संविधान में आरक्षण किया जाएगा। इस घोषणा के समर्थन में कहा गया है कि महिलाओं को वर्ग, जाति तथा महिला होने के कारण अनेक अवसरों से वंचित रहना पड़ता है, इसलिए पंचायतों तथा शहरी स्थानीय निकायों में आरक्षण को बढ़ाने से और अधिक महिलाएं सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश कर सकेंगी। दूसरी घोषणा का संबंध राज्य विधानमंडलों और संसद में महिलाओं को एक-तिहाई आरक्षण का प्रावधान करनेवाले विधेयक को शीघ्र पारित कराने से है। आश्चर्य की बात यह है कि दूसरी घोषणा पर तुरंत विवाद शुरू हो गया, पर पहली घोषणा के बारे में कोई चर्चा ही नहीं है। इससे हम समझ सकते हैं कि सत्ता के वास्तविक केंद्र कहां हैं। पंचायत और नगरपालिका के स्तर पर क्या होता है, इससे हमारे सांसदों और पार्टी सरदारों को कोई मतलब नहीं है। उनकी चिंता सिर्फ यह है कि राज्य और केंद्र की सत्ता के दायरे में छेड़छाड़ नहीं होना चाहिए। ..............जब तक यह मनोवृत्ति कायम है, स्थानीय स्तर पर लोकतांत्रिक शासन के मजबूत होने की कोई संभावना नहीं है। जब 1992 में स्थानीय स्वशासन के संस्थानों में महिलाओं को सभी सीटों और पदों पर 33 प्रतिशत आरक्षण देने का संवैधानिक कानून बनाया गया था, उस वक्त भी यह एक क्रांतिकारी कार्यक्रम था। लेकिन इस बात को समझा गया लगभग दो दशक बाद जब महिलाओं की एक-तिहाई उपस्थिति के कारण पंचायतों के सत्ता ढांचे में परिवर्तन स्पष्ट दिखाई पड़ने लगा। असल में शुरू में पंचायतों के पास शक्ति, सत्ता या संसाधन कुछ भी नहीं था। इसलिए यह बात खबर न बन सकी कि करीब दस लाख महिलाएं पंचायतों के विभिन्न स्तरों पर स्थान ग्रहण करने जा रही हैं। देश में पहली बार ऐसा कानून बना था जो महिलाओं को गांव के सार्वजनिक जीवन में प्रवेश का अधिकार देता था। न केवल अधिकार देता था, बल्कि इसे अनिवार्य बना चुका था। शताब्दियों से महिलाओं का जिस तरह घरूकरण किया हुआ था, उसे देखते हुए यह उम्मीद करना यथार्थपरक नहीं था कि महिलाएं अचानक बड़े पैमाने पर सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करेंगी। जब यह संवैधानिक कानून पारित होने की प्रक्रिया में था, तब बहुतों ने यह सवाल किया भी कि इतनी महिला उम्मीदवार आएंगी कहां से? बेशक अब तक भी सब कुछ ठीकठाक नहीं है। बहुत सारी महिला पंचायत सदस्यों ने गांव के जीवन पर अपनी कार्यनिष्ठा की स्पष्ट छाप छोड़ी है। उनके नाम नक्षत्र की तरह जगमगा रहे हैं। उन्हें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार और सम्मान भी मिले हैं। पर अभी भी सब कुछ ठीकठाक नहीं है। आरक्षण के कारण जो महिलाएं चुन कर पंचायतों में आई हैं, उनमें से अनेक पर अभी भी पितृसत्ता की गहरी छाया है। इन पंचायत सदस्यों के पति या अन्य परिवारी जन ही पंचायत में असली भूमिका निभाते हैं और जहां बताया जाता है वहां महिलाएं सही कर देती हैं या अंगूठे का निशान लगा देती हैं। इसी प्रक्रिया में पंचपति, सरपंचपति, प्रधानपति आदि संबोधन सामने आए हैं। दूसरी ओर, अनुसूचित जातियों और जनजातियों की जो महिलाएं चुन कर पंचायतों में आई हैं, उन्हें पंचायत के वर्तमान सत्ता ढांचे में उनका प्राप्य नहीं दिया जाता। कहीं उन्हें जमीन पर बैठने को मजबूर किया जाता है, कहीं उनकी बात नहीं सुनी जाती और कहीं-कहीं तो उन्हें पंचायत की बैठक में बुलाया भी नहीं जाता। यानी राजनीति और कानून ने महिलाओं को सत्ता में जो हिस्सेदारी बख्शी है, समाज उसे मान्यता देने के लिए अभी भी तैयार नहीं है। ध्यान देने की बात है कि यह मुख्यत: उत्तर भारत की हकीकत है। दक्षिण भारत के मानस में महिला नेतृत्व को स्वीकार करने के स्तर पर कोई हिचकिचाहट नहीं है। जाहिर है कि उत्तर भारत का समाज महिलाओं को उनका हक देने के मामले में अभी भी काफी पुराणपंथी है। लेकिन इससे क्या होता है? महान फ्रेंच लेखक और विचारक विक्टर ह्यूगो की यह उक्ति मशहूर है कि जिस विचार का समय आ गया है, उसे रोका नहीं जा सकता। स्त्री-पुरुष समानता का विचार आधुनिक सभ्यता के मूल में है। इसलिए सत्ता में स्त्रियों की हिस्सेदारी को देर-सबेर स्वीकार तो करना ही होगा। चूंकि दक्षिण भारत में यह स्वीकार भाव सामाजिक प्रगति के परिणामस्वरूप आया है, इसलिए केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक की पंचायतों में महिलाओं की हिस्सेदारी अपने आप 50 प्रतिशत या इससे ऊपर तक चली गई है। इसके विपरीत बिहार सरकार ने इस रेडिकल लक्ष्य को प्राप्त किया एक नया कानून बना कर, जिसमें पंचायतों में मछलियों को 50 प्रतिशत आरक्षण देने का प्रावधान था। बिहार के बाद हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान आदि कई राज्यों ने 50:50 के इस विचार को अपनाया और अब केंद्र सरकार पूरे देश के लिए यह कानून बनाने जा रही है। इसका हम सभी को खुश हो कर स्वागत करना चाहिए। इस संदर्भ में यह याद रखने लायक बात है कि बहुत-सी महिलाओं ने कहा है कि अगर आरक्षण न होता, तो हम पंचायत में चुन कर कभी नहीं आ सकती थीं। आक्षण के इस महत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सवाल यह है कि जो काम पंचायत और नगरपालिका के स्तर पर इतनी आसानी से संपन्न हो गया और सामाजिक प्रतिरोध के बावजूद कम से कम कागज पर तो अमल हो ही रहा है, वही काम विधानमंडल और संसद के स्तर पर क्यों नहीं संपन्न हो पा रहा है? देवगौड़ा के बाद से हर सरकार महिला आरक्षण विधेयक को पारित कराने का वादा करती है, पर यह हो नहीं पाता। मनमोहन सिंह की सरकार ने इस बार अपने को प्रतिबद्ध किया है कि वह महिला आरक्षण विधेयक को शीघ्र पारित कराने के लिए कदम उठाएगी। यह काम पहले सौ दिनों के भीतर पूरा करने का इरादा भी जाहिर किया गया गया है। आश्चर्य की बात यह है कि जो काम वह इस बार सौ दिनों में करने का इरादा रखती है, वही काम वह पिछले पांच साल में भी क्यों नहीं पूरा कर सकी। यहां तक कि पांच वर्ष की इस लंबी अवधि के दौरान इस मुद्दे पर राजनीतिक सर्वसम्मति बनाने की दिशा में भी कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया। दिलचस्प यह है कि यह विधेयक जब पहली बार संसद में पेश किया गया था, उस वक्त जो राजनीतिकार इसका विरोध कर रहे थे, वह इस बार भी विरोध कर रहे हैं। स्पष्ट है कि अगर इन्हें मनाना संभव नहीं है, तो इनके विरोध की उपेक्षा करते हुए ही इस विधेयक को पारित कराना होगा। क्या ऐसा हो पाएगा? क्या इसके लिए मनमोहन सिंह की सरकार तैयार है? इस बार एक विचित्र स्थिति पैदा हो गई है। राष्ट्रपति महिला हैं, लोक सभा अध्यक्ष महिला हैं, सत्तारूढ़ दल की अध्यक्ष महिला हैं। फिर भी महिला आरक्षण विधेयक का पारित होना मुश्किल लग रहा है। वैसे, इन महिलाओं में सोनिया गांधी की सत्ता ही वास्तविक है और सोनिया गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष बनना महज एक संयोग है। अगर राजीव गांधी आज जीवित होते, तो वही कांग्रेस अध्यक्ष होते। उम्मीद की जाती है कि राहुल गांधी जल्द ही राजनीतिक उत्तराधिकार का यह पारिवारिक पद संभाल लेंगे। तब सोनिया गांधी की सत्ता प्रतीकात्मक हो जाएगी, उसी तरह जैसे राष्ट्रपति और लोक सभा अध्यक्ष की सत्ता प्रतीकात्मक है। इसका मतलब यह है कि भारत के राजनीति मंडल को सत्ता के बहुत निम्न स्तर, यानी पंचायत और नगरपालिका के स्तर पर, महिलाओं को 50 प्रतिशत तक भागीदार बनाने में कोई दिक्कत नहीं है, सत्ता के उच्च स्तर पर महिलाओं को प्रतीकात्मक सत्ता देने में कोई हिचकिचाहट नहीं है, पर सत्ता के उच्च स्तर पर महिलाओं को मात्र 33 प्रतिशत आरक्षण देने में उसकी जान निकली जा रही है। पिछड़ावादी राजनीतिकारों का पुराना तर्क है कि यदि विधानमंडल में महिलाओं को आरक्षण दिया जाता है, तो इन आरक्षित सीटो में पिछड़ा जाति की महिलाओं के लिए अलग से आरक्षण अलग से मिलना चाहिए। सतही तौर पर यह तर्क ठीक लगता है, पर सवाल यह है कि सारी मांग सरकार से ही क्यों? पिछड़ी जातियों के पुरुष अपने स्त्री समाज को सार्वजनिक जीवन में आगे क्यों नहीं बढ़ाना चाहते? आज सभी विधानमंडलों और संसद में पिछड़ी जातियों के पुरुषों का बोलबाला है। इसके लिए तो किसी आरक्षण की जरूरत नहीं हुई। फिर महिलाओं के मामले में दोहरा मानदंड क्यों? क्या यहां भी पंचपति, सरपंचपति और प्रधानपति की चाहत मुखर हो रही है? यह देख कर अच्छा नहीं लगा कि महिला आरक्षण के समर्थन में सीपीएम की वृंदा करात और भाजपा की सुषमा स्वराज एक दूसरे का हाथ थामे फोटो खिंचवा रही हैं। क्या स्त्री एकता विचाराधारा से ऊपर की चीज है? फिर भी यह पिछड़ावादी द्वंद्वात्मकता से कुछ बेहतर है। दो घोर परस्पर विरोधी दलों में आखिर एक गंभीर मुद्दे पर एकता दिखाई दे रही है, तो उम्मीद की जा सकती है कि आज नहीं तो कल महिला प्रतिनिधियों को राज्य और केंद्र के स्तर पर आरक्षण मिल कर रहेगा।
(snsdji.com सांसदजी डॉट कॉम से)राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष एवं सांसद गिरिजा व्यास ने एक बार फिरस्वयंवर जैसे रियलिटी शो पर नाराजी जताते हुए कहा है कि ऐसे शो को तुरंतबंद करने की जरूरत है। इससे महिलाओं के सम्मान का हनन हो रहा है। इससेपूर्व पिछले महीने फरवरी में राष्ट्रीय महिला आयोग ने सूचना प्रसारण मंत्रालय सेयह सुनिश्चित करने को कहा था कि राहुल के रियलिटी शो में स्त्री का अशोभनीयचित्रण न होने पाए। अभी उन्होंने इस शो का सिर्फ विज्ञापन देखा है, लेकिन वेयह सुनिश्चित करना चाहती हैं कि इसमें स्त्री को गलत ढंग से पेश न किया जाए।व्यास ने शो के नाम में स्वयंवर शब्द के इस्तेमाल पर भी एतराज जताया था। इससे लगता है कि जैसे स्त्री कोईउपभोग की वस्तु हो। उधर, उल्लेखनीय है कि राहुल महाजन ने शादी के बाद हनीमून के लिए मालदीव जाने कोलेकर कोर्ट से इजाजत मांगी है। राहुल महाजन की 6 मार्च को शादी है और ड्रग्स रखने के मामले में उनका पासपोर्टजब्त है। राहुल की अर्जी में लिखा गया है कि वह 9 मार्च से 30 मार्च तक हनीमून के लिए मालदीव जाना चाहते हैं।महिला आयोग उनके शो पर आपत्ति उठा रहा है, उनके शो में अश्लीलता को लेकर भी जायज सवाल उठने लगे हैं।स्वयंवर सीजन-2 में राहुल अपने लिए दुल्हन तलाशते नजर आते हैं। गिरिजा व्यास कहती हैं कि उन्हें कईमहिलाओं से इस सीरियल के खिलाफ शिकायतें मिली हैं। इसलिए हमने इसके निर्माता बिग साइनर्जी को नोटिसभेजने का निर्णय किया। सामाजिक मूल्यों को पेश करने के तरीके के खिलाफ महिलाओं ने शिकायतें की। मेरी भीयही राय है कि किसी भी व्यक्ति के निजी व सार्वजनिक जीवन में अंतर होता है। सच उजागर करने से न केवलप्रतिभागियों बल्कि दर्शकों के जीवन पर भी असर पड्ता है। पिछले साल 2009 में राजस्थान हाई कोर्ट ने निचलीअदालत के उस आदेश पर रोक लगा दी थी जिसमें रियलिटी शो 'राखी का स्वयंवर' से जुड़े छह लोगों के ख़िलाफ़पुलिस को प्राथमिकी दर्ज करने को कहा गया था। उन छह लोगों में राखी सावंत भी शामिल थीं। जयपुर के गौरवतिवारी ने निचली अदालत में एक आपराधिक शिकायत पेश कर कहा था कि 'स्वयंवर' उनकी परिकल्पना थी औरइस रियलिटी शो के प्रस्तुतकर्ता ने उसका मौलिक विचार हथिया कर आपराधिक कार्य किया। उन दिनों 'राखी कास्वयंवर' शो की शूटिंग राजस्थान में ही चल रही थी। राखी सावंत की उस नौटंकी को लोग भूले भी नहीं थे कि वहएक बार फिर रियलिटी शो के जरिये स्वयंवर पार्ट 2 करने की भी सोचने लगी थीं। पहले के रियलिटी शो में राखी नेसभी के सामने इलेश से सगाई कर ली थी।

बिहार के सांसद मांगा 10 फीसद आरक्षण।
पूर्व सांसद शहाबुद्दीन को कोर्ट से राहत नहीं।
बिहार कांग्रेस पूर्व सांसद की सोनिया और राहुल से शिकायत।
राजस्थान में आज सांसद-मंत्री जोशी लेंगे नरेगा की खबर।
सांसद सचिन पायलट अजमेर में लोगों से मिलेंगे।
राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने गुड़गांव में मनाया साठे का जन्मदिन।
----खबरें विस्तार से सांसदजी डॉट कॉम sansadji.com पर।
महिला आरक्षण बिल 8 मार्च को राज्यसभा में पेश होगा। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव को ध्वनिमत से मंजूरीः कल तक महंगाई को लेकर संसद से सड़क तक कांग्रेस पर बरस रही भाजपा आज लम्बे अरसे से लटके महिला आरक्षण विधेयक पर खुलकर सरकार के साथ हो गई। दोनों पार्टियों ने साझा जैसी रणनीति के तहत 8 मार्च को सदन में उपस्थित रहने के लिए व्हिप जारी कर दिया है। चौदह सालों से लटका ये आरक्षण बिल महिला दिवस के दिन 8 मार्च को राज्यसभा
में पेश होगा। केन्द्रीय कानून मंत्री एम.वीरप्पा मोईली विधेयक को सोमवार को राज्यसभा में विधेयक को चर्चा के लिए पेश करेंगे। कांग्रेस को पूरी उम्मीद है कि यह विधेयक सदन में पारित हो जाएगा। अन्य विपक्षी दलों की परवाह किए बगैर महिला आरक्षण विधेयक का खुलकर समर्थन कर रही भारतीय जनता पार्टी व कांग्रेस ने शुक्रवार को राज्यसभा में अपनी पार्टी के सदस्यों को व्हिप जारी कर सोमवार को सदन में मौजूद रहने की हिदायत दी है। भाजपा नेता अरूण जेटली ने कहा कि पार्टी सदस्यों को सोमवार को राज्यसभा में मौजूद रहने के लिए व्हिप जारी किया गया है। विधेयक पर पार्टी का रूख पूछे जाने पर जेटली ने कहा कि भाजपा इसका पूरा समर्थन करेगी। यह एक ऎसी प्रतिबद्धता है जो लंबे समय से लंबित है। हम इसका पूरा समर्थन करते हैं। भाजपा सूत्रों ने कहा कि संसदीय कार्य मंत्री पवन कुमार बंसल ने विभिन्न दलों के प्रतिनिधियों के साथ बैठक की जिसमें उन्होंने पार्टियों से व्हिप जारी करने की अपील की ताकि उनके सदस्य सोमवार को राज्यसभा में मौजूद रहें और इस विधेयक को पारित कराया जा सके। उधर, महंगाई के मुद्दे पर आज प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक नई कहानी सुनाते हुए कहा कि उनकी सरकार ने जान बूझकर महंगाई को बढ़ने दिया। लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर पेश धन्यवाद प्रस्ताव को शुक्रवार को ध्वनिमत से मंजूरी दे दी गई। राष्ट्रपति द्वारा संसद के बजट सत्र के पहले दिन 22 फरवरी को दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में दिए गए अभिभाषण पर लोकसभा में पेश धन्यवाद प्रस्ताव पर तीन दिनों की चर्चा और प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह द्वारा दिए गए उत्तर के बाद सदन ने उसे स्वीकृति दी। इससे पहले सदन ने इस प्रस्ताव पर विपक्ष की ओर से पेश किए गए संशोधनों को ध्वनिमत से नामंजूर कर दिया। कांग्रेस के राव इंद्रजीत सिंह ने तीन मार्च को प्रस्ताव पेश किया था कि राष्ट्रपति की सेवा में निम्नलिखित शब्दों में एक समावेदन प्रस्तुत किया जाए कि इस सत्र में समवेत लोकसभा के सदस्य राष्ट्रपति के उस अभिभाषण के लिए अत्यंत आभारी है जो उन्होंने 22 फरवरी को दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में दिए थे। कांग्रेस की कुमारी मीनाक्षी नटराजन ने प्रस्ताव का अनुमोदन किया था। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुई चर्चा के जवाब में प्रधानमंत्री ने आज लोकसभा में कहा कि महंगाई रोकने में उनकी सरकार सक्षम है, लेकिन बेरोजगारी बढ़ने की आशंका से इस दिशा में कड़े कदम नहीं उठा रही। मनमोहन सिंह ने स्पष्ट किया कि यदि महंगाई रोकने के लिए कड़े कदम उठाए जाते हैं, तो इससे बेरोजगारी बढ़ेगी।
सोनिया गांधी ने दी व्हिप की चेतावनी। आइंदा सदन सेगायब हुए तो खबरदार!! संसद की कार्यवाही से गैरहाजिर रहने वाले कांग्रेस सांसदों को चेतावनी देते हुए पार्टी सुप्रीमो सोनिया गांधी ने गुरुवार को खबरदार कर दिया कि अगर वे अपनी विधायी जिम्मेदारियों को निभाने के प्रति गंभीर नहीं होंगे तो पार्टी नेतृत्व को व्हिप जारी करना पड़ेगा। यहां कांग्रेस संसदीय दल की बैठक को संबोधित करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष ने संसद में पार्टी सदस्यों की कम उपस्थिति पर अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि अपने लगभग सभी संबोधनों में मैंने एक और मामले का बार-बार जिक्र किया है और वह है उपस्थिति का मामला। नियमित उपस्थिति हमारे मूल दायित्व और कर्तव्य का हिस्सा है। सदन में बैठना और संसदीय कार्यवाही को सुनना भी अपने-आप में एक शिक्षा है। समय आ गया है कि कम उपस्थिति के मसले को सदस्य गंभीरता से लें। संसद के पिछले अधिवेशन में सदन से सांसदों की गैरहाजिरी के कारण प्रश्न काल में बाधा आई थी। गैरहाजिर सांसदों में कांग्रेस के सदस्य भी शामिल थे। सोनिया गांधी संसदीय दल की पिछली कई बैठकों में इस मामले को उठा चुकी हैं। पूर्व में कांग्रेस अध्यक्ष ने सदन से गैरहाजिर रहने वाले 34 पार्टी सांसदों की सूची तलब कर ली थी। सांसदों के गायब रहने के चलते प्रश्नकाल स्थगित करना पड़ा था। संसद देश की सबसे बड़ी पंचायत है। संसद के दोनों सदनों में सरकार से प्रश्न पूछने की एक निर्धारित प्रक्रिया है। प्रायः तीन सप्ताह पहले सांसद अपना प्रश्न संसद की टेबल ऑफिस में देते हैं। उसके बाद लॉटरी निकलती है। जिस सांसद के प्रश्न का मंत्री मौखिक जवाब देते हैं उसे तारांकित प्रश्न कहते हैं। लोकसभा और राज्यसभा में अवकाशप्राप्त कर्मचारी घूमते रहते हैं और नए सांसदों को बताते रहते हैं कि तारांकित और अतारांकित प्रश्न कैसे पूछे जाएँ। उनकी सलाह पर ये सांसद प्रश्न पूछ लेते हैं। सांसद को विषय का तो सामान्यतः पता होता नहीं है। एक प्रश्न का जवाब तैयार करने में लाखों रुपया सरकार का खर्च होता है। यदि सांसद सदन में आए ही नहीं तो यह गरीब जनता के पैसों से खिलवाड़ है। जनहित से जुड़े अन्य तमाम महत्वपूर्ण विषय पर भी जब सदन में चर्चा होती है तो अधिकतर सांसद गायब रहते हैं। कभी-कभी अपने दूसरे कामों में व्यस्तता के कारण वे समय पर संसद में पहुँच नहीं पाते हैं। संसद में कोई भी सांसद दिनभर में एक बार आकर केवल हाजिरी की बही में दस्तखत करके वापस चले जाएँ और सदन के अंदर नहीं भी जाएँ तो भी उन्हें उस दिन का भत्ता मिल जाता है जो काफी तगड़ा होता है। अतः प्रश्नकाल में समय देने में उनकी कोई रुचि नहीं होती है। कुछ तो सेंट्रल हॉल में बैठकर चाय-काफी पीते रहते हैं और बार-बार बुलाए जाने की घंटी को सुनकर भी अनसुना कर देते हैं। कई बार तो कोरम के अभाव में बहस संसद में नहीं हो पाती है। संसद में उठने वाले सवाल देश के भविष्य से जुड़े होते हैं। इसके बावजूद सांसदों का गायब रहना उनकी बढ़ती लापरवाही को ही दर्शाता है। संसद की कार्यवाही चलाने के लिए देश की जनता से टैक्स के रूप में वसूला गया पैसा खर्च होता है। सदन से गायब रहने की आदत कोई नई बात नहीं। पिछले कुछ सालों से यह देखा जा रहा है कि कई विधेयक बगैर किसी बहस के ही पारित कर दिए जा रहे हैं। इसकी मूल वजह यह है कि सदन की कार्यवाही में सांसदों की दिलचस्पी घटती जा रही है।