Saturday, March 6, 2010

50 प्रतिशत बनाम 33 प्रतिशतः राजकिशोर



(आज, जबकि संसद में सोमवार का दिन विश्व महिला दिवस के सौ साल एवं महिला विधेयक के नाते सबसे महत्वपूर्ण हो चला है, ऐसे में महिला आरक्षण पर 10 जून 2009 को लिखा गया सुपरिचित पत्रकार एवं लेखक राजकिशोर का यह लेख साभार raajkishore.blogspot.com से उद्धृत किया जा रहा है। जो समसामयिक मुद्दे पर हमें कई गंभीर सवालों से रूबरू कराता है।)

राष्ट्रपति जी ने संसद को संबोधित करते हुए अपनी सरकार का जो पहले सौ दिनों का कार्यक्रम पेश किया, उसमें महिलाओं को दिए जानेवाले आरक्षण से संबंधित दो महत्वपूर्ण घोषणाएं हैं। एक घोषणा यह है कि पंचायतों और नगरपालिकाओं की निर्वाचित सीटों पर महिलाओं का आरक्षण 33 प्रतिशत से बढ़ कर 50 प्रतिशत किया जाएगा और इसके लिए संविधान में आरक्षण किया जाएगा। इस घोषणा के समर्थन में कहा गया है कि महिलाओं को वर्ग, जाति तथा महिला होने के कारण अनेक अवसरों से वंचित रहना पड़ता है, इसलिए पंचायतों तथा शहरी स्थानीय निकायों में आरक्षण को बढ़ाने से और अधिक महिलाएं सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश कर सकेंगी। दूसरी घोषणा का संबंध राज्य विधानमंडलों और संसद में महिलाओं को एक-तिहाई आरक्षण का प्रावधान करनेवाले विधेयक को शीघ्र पारित कराने से है। आश्चर्य की बात यह है कि दूसरी घोषणा पर तुरंत विवाद शुरू हो गया, पर पहली घोषणा के बारे में कोई चर्चा ही नहीं है। इससे हम समझ सकते हैं कि सत्ता के वास्तविक केंद्र कहां हैं। पंचायत और नगरपालिका के स्तर पर क्या होता है, इससे हमारे सांसदों और पार्टी सरदारों को कोई मतलब नहीं है। उनकी चिंता सिर्फ यह है कि राज्य और केंद्र की सत्ता के दायरे में छेड़छाड़ नहीं होना चाहिए। ..............जब तक यह मनोवृत्ति कायम है, स्थानीय स्तर पर लोकतांत्रिक शासन के मजबूत होने की कोई संभावना नहीं है। जब 1992 में स्थानीय स्वशासन के संस्थानों में महिलाओं को सभी सीटों और पदों पर 33 प्रतिशत आरक्षण देने का संवैधानिक कानून बनाया गया था, उस वक्त भी यह एक क्रांतिकारी कार्यक्रम था। लेकिन इस बात को समझा गया लगभग दो दशक बाद जब महिलाओं की एक-तिहाई उपस्थिति के कारण पंचायतों के सत्ता ढांचे में परिवर्तन स्पष्ट दिखाई पड़ने लगा। असल में शुरू में पंचायतों के पास शक्ति, सत्ता या संसाधन कुछ भी नहीं था। इसलिए यह बात खबर न बन सकी कि करीब दस लाख महिलाएं पंचायतों के विभिन्न स्तरों पर स्थान ग्रहण करने जा रही हैं। देश में पहली बार ऐसा कानून बना था जो महिलाओं को गांव के सार्वजनिक जीवन में प्रवेश का अधिकार देता था। न केवल अधिकार देता था, बल्कि इसे अनिवार्य बना चुका था। शताब्दियों से महिलाओं का जिस तरह घरूकरण किया हुआ था, उसे देखते हुए यह उम्मीद करना यथार्थपरक नहीं था कि महिलाएं अचानक बड़े पैमाने पर सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करेंगी। जब यह संवैधानिक कानून पारित होने की प्रक्रिया में था, तब बहुतों ने यह सवाल किया भी कि इतनी महिला उम्मीदवार आएंगी कहां से? बेशक अब तक भी सब कुछ ठीकठाक नहीं है। बहुत सारी महिला पंचायत सदस्यों ने गांव के जीवन पर अपनी कार्यनिष्ठा की स्पष्ट छाप छोड़ी है। उनके नाम नक्षत्र की तरह जगमगा रहे हैं। उन्हें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार और सम्मान भी मिले हैं। पर अभी भी सब कुछ ठीकठाक नहीं है। आरक्षण के कारण जो महिलाएं चुन कर पंचायतों में आई हैं, उनमें से अनेक पर अभी भी पितृसत्ता की गहरी छाया है। इन पंचायत सदस्यों के पति या अन्य परिवारी जन ही पंचायत में असली भूमिका निभाते हैं और जहां बताया जाता है वहां महिलाएं सही कर देती हैं या अंगूठे का निशान लगा देती हैं। इसी प्रक्रिया में पंचपति, सरपंचपति, प्रधानपति आदि संबोधन सामने आए हैं। दूसरी ओर, अनुसूचित जातियों और जनजातियों की जो महिलाएं चुन कर पंचायतों में आई हैं, उन्हें पंचायत के वर्तमान सत्ता ढांचे में उनका प्राप्य नहीं दिया जाता। कहीं उन्हें जमीन पर बैठने को मजबूर किया जाता है, कहीं उनकी बात नहीं सुनी जाती और कहीं-कहीं तो उन्हें पंचायत की बैठक में बुलाया भी नहीं जाता। यानी राजनीति और कानून ने महिलाओं को सत्ता में जो हिस्सेदारी बख्शी है, समाज उसे मान्यता देने के लिए अभी भी तैयार नहीं है। ध्यान देने की बात है कि यह मुख्यत: उत्तर भारत की हकीकत है। दक्षिण भारत के मानस में महिला नेतृत्व को स्वीकार करने के स्तर पर कोई हिचकिचाहट नहीं है। जाहिर है कि उत्तर भारत का समाज महिलाओं को उनका हक देने के मामले में अभी भी काफी पुराणपंथी है। लेकिन इससे क्या होता है? महान फ्रेंच लेखक और विचारक विक्टर ह्यूगो की यह उक्ति मशहूर है कि जिस विचार का समय आ गया है, उसे रोका नहीं जा सकता। स्त्री-पुरुष समानता का विचार आधुनिक सभ्यता के मूल में है। इसलिए सत्ता में स्त्रियों की हिस्सेदारी को देर-सबेर स्वीकार तो करना ही होगा। चूंकि दक्षिण भारत में यह स्वीकार भाव सामाजिक प्रगति के परिणामस्वरूप आया है, इसलिए केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक की पंचायतों में महिलाओं की हिस्सेदारी अपने आप 50 प्रतिशत या इससे ऊपर तक चली गई है। इसके विपरीत बिहार सरकार ने इस रेडिकल लक्ष्य को प्राप्त किया एक नया कानून बना कर, जिसमें पंचायतों में मछलियों को 50 प्रतिशत आरक्षण देने का प्रावधान था। बिहार के बाद हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान आदि कई राज्यों ने 50:50 के इस विचार को अपनाया और अब केंद्र सरकार पूरे देश के लिए यह कानून बनाने जा रही है। इसका हम सभी को खुश हो कर स्वागत करना चाहिए। इस संदर्भ में यह याद रखने लायक बात है कि बहुत-सी महिलाओं ने कहा है कि अगर आरक्षण न होता, तो हम पंचायत में चुन कर कभी नहीं आ सकती थीं। आक्षण के इस महत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सवाल यह है कि जो काम पंचायत और नगरपालिका के स्तर पर इतनी आसानी से संपन्न हो गया और सामाजिक प्रतिरोध के बावजूद कम से कम कागज पर तो अमल हो ही रहा है, वही काम विधानमंडल और संसद के स्तर पर क्यों नहीं संपन्न हो पा रहा है? देवगौड़ा के बाद से हर सरकार महिला आरक्षण विधेयक को पारित कराने का वादा करती है, पर यह हो नहीं पाता। मनमोहन सिंह की सरकार ने इस बार अपने को प्रतिबद्ध किया है कि वह महिला आरक्षण विधेयक को शीघ्र पारित कराने के लिए कदम उठाएगी। यह काम पहले सौ दिनों के भीतर पूरा करने का इरादा भी जाहिर किया गया गया है। आश्चर्य की बात यह है कि जो काम वह इस बार सौ दिनों में करने का इरादा रखती है, वही काम वह पिछले पांच साल में भी क्यों नहीं पूरा कर सकी। यहां तक कि पांच वर्ष की इस लंबी अवधि के दौरान इस मुद्दे पर राजनीतिक सर्वसम्मति बनाने की दिशा में भी कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया। दिलचस्प यह है कि यह विधेयक जब पहली बार संसद में पेश किया गया था, उस वक्त जो राजनीतिकार इसका विरोध कर रहे थे, वह इस बार भी विरोध कर रहे हैं। स्पष्ट है कि अगर इन्हें मनाना संभव नहीं है, तो इनके विरोध की उपेक्षा करते हुए ही इस विधेयक को पारित कराना होगा। क्या ऐसा हो पाएगा? क्या इसके लिए मनमोहन सिंह की सरकार तैयार है? इस बार एक विचित्र स्थिति पैदा हो गई है। राष्ट्रपति महिला हैं, लोक सभा अध्यक्ष महिला हैं, सत्तारूढ़ दल की अध्यक्ष महिला हैं। फिर भी महिला आरक्षण विधेयक का पारित होना मुश्किल लग रहा है। वैसे, इन महिलाओं में सोनिया गांधी की सत्ता ही वास्तविक है और सोनिया गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष बनना महज एक संयोग है। अगर राजीव गांधी आज जीवित होते, तो वही कांग्रेस अध्यक्ष होते। उम्मीद की जाती है कि राहुल गांधी जल्द ही राजनीतिक उत्तराधिकार का यह पारिवारिक पद संभाल लेंगे। तब सोनिया गांधी की सत्ता प्रतीकात्मक हो जाएगी, उसी तरह जैसे राष्ट्रपति और लोक सभा अध्यक्ष की सत्ता प्रतीकात्मक है। इसका मतलब यह है कि भारत के राजनीति मंडल को सत्ता के बहुत निम्न स्तर, यानी पंचायत और नगरपालिका के स्तर पर, महिलाओं को 50 प्रतिशत तक भागीदार बनाने में कोई दिक्कत नहीं है, सत्ता के उच्च स्तर पर महिलाओं को प्रतीकात्मक सत्ता देने में कोई हिचकिचाहट नहीं है, पर सत्ता के उच्च स्तर पर महिलाओं को मात्र 33 प्रतिशत आरक्षण देने में उसकी जान निकली जा रही है। पिछड़ावादी राजनीतिकारों का पुराना तर्क है कि यदि विधानमंडल में महिलाओं को आरक्षण दिया जाता है, तो इन आरक्षित सीटो में पिछड़ा जाति की महिलाओं के लिए अलग से आरक्षण अलग से मिलना चाहिए। सतही तौर पर यह तर्क ठीक लगता है, पर सवाल यह है कि सारी मांग सरकार से ही क्यों? पिछड़ी जातियों के पुरुष अपने स्त्री समाज को सार्वजनिक जीवन में आगे क्यों नहीं बढ़ाना चाहते? आज सभी विधानमंडलों और संसद में पिछड़ी जातियों के पुरुषों का बोलबाला है। इसके लिए तो किसी आरक्षण की जरूरत नहीं हुई। फिर महिलाओं के मामले में दोहरा मानदंड क्यों? क्या यहां भी पंचपति, सरपंचपति और प्रधानपति की चाहत मुखर हो रही है? यह देख कर अच्छा नहीं लगा कि महिला आरक्षण के समर्थन में सीपीएम की वृंदा करात और भाजपा की सुषमा स्वराज एक दूसरे का हाथ थामे फोटो खिंचवा रही हैं। क्या स्त्री एकता विचाराधारा से ऊपर की चीज है? फिर भी यह पिछड़ावादी द्वंद्वात्मकता से कुछ बेहतर है। दो घोर परस्पर विरोधी दलों में आखिर एक गंभीर मुद्दे पर एकता दिखाई दे रही है, तो उम्मीद की जा सकती है कि आज नहीं तो कल महिला प्रतिनिधियों को राज्य और केंद्र के स्तर पर आरक्षण मिल कर रहेगा।

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