Tuesday, December 30, 2008

मोहल्ला से साभार


मानविंदर भिंबर उवाच:
शोभा जी, दिल की बात कह कर अच्छा ही किया... और सच भी यही है।

कुश उवाच:
बिल्कुल ठीक कहा आपने। यही सब तो हो रहा है।

अल्पना वर्मा उवाच:
बहुत ही आश्चर्य हो रहा है। सच मानें तो विश्वास ही नहीं कर पा रही हूं। दुःख भी है की हिन्दी भाषा के कारण ख्याति प्राप्त व्यक्ति कैसे ऐसी बातें कह सकता है? आप ने बेबाकी से यह बात कही और उनका व्यक्तित्व हमारी नज़रों के सामने भी आ गया। आभार।

रंजन उवाच:
ये तो शर्मनाक है।

रंजना उवाच:
इस सत्य को अनावृत्त करने और सबके सामने लाने हेतु बहुत बहुत आभार। चिंता न करें। साहित्य को अजायबघर पहुंचाने वाले ऐसे तथाकथित साहित्यकारों को अजायबघर में भी स्थान नही मिलेगा। स्वस्तुति करते करते ही स्वर्ग सिधारेंगे ये।

संजय बेंगाणी उवाच:
यह जरूर उन काला चश्माधारी ने कही होगी। घबराएं नहीं, हिन्दी को समय के साथ चलाने वाले युवाओं की कमी नहीं है, उन्हे इन बुजुर्ग की सलाह की आवश्यकता भी नहीं।

रजनीश के झा उवाच:
हिन्दी के पराभव के लिए ऐसे ही तथाकथित ठेकेदार तो जिम्मेदार हैं जिन्होंने हमारी हिन्दी माँ को नोच नोच कर खाया है और अब जिन्दगी के आखिरी पड़ाव पर अंग्रेजियत का चश्‍मा लगा कर हिंद की हिन्दी को आईना दिखा रहे हैं। स्याही की खूबसूरती को स्‍याह करने वाले ऐसे दुर्योधन को हिन्दी में जगह न दें, ऐसा अनुरोध करता हूं। आपके दर्द में बराबर का शरीक हूं।

अनुराग श्रीवास्‍तव उवाच:
हिन्दी के ऐसे अपमान से मैं भी आहत हूं। भाषा के विकास के लिये स्वरूप परिवर्तन की बात तो समझ में आती है, लेकिन इस तरह के वक्तव्य की नहीं।

मनु उवाच:
शोभा जी, कल का कार्यक्रम औपचारिक तौर पर सफल बता कर हम भी घर लौट आये थे। पर मन में वही सब कुछ चल रहा था, जो आपने उगला और हम से भी उगलवा दिया। इसके अलावा एक चीज और बेहद अखरी। डॉक्टर दरवेश भारती, जिन को मैंने कल पहली बार देखा और उनके दरवेश जैसे ही स्वभाव का कायल भी हो गया, पूरे कार्यक्रम में एक बिल्कुल गुमनाम आदमी की तरह केवल दर्शक बने बैठे रहे। किसलिए बांटी गयी उनकी किताबें??? क्या मंच पर बैठा कोई भी व्यक्ति ये नहीं जानता था कि जिस छंद शास्त्री की किताबें बांटी जा रही हैं, वो भी वहीं मौजूद हैं। सब जानते थे, पर उनसे दो शब्द कहलवाना तो दूर, उनका परिचय तक करवाना गैरजरूरी बात मान ली गयी। हालांकि उन्हें देख कर ही पता चल गया की उनकी तबीयत ऐसे किसी सम्मान की तलबगार नहीं है। वो हमारे मुख्य अतिथि जैसे तो बिल्कुल भी नहीं हैं ना। और न अन्य लोगों जैसे। फ़कीर जैसे लगे, जो वाकई हर हाल में साहित्य की सेवा कर रहा है। पर मुझे ये नज़रअंदाजी काबिले शिकवा लगी, सो कह दिया। आपने दिल हल्का करवा दिया। आपका शुक्रिया, वरना ये बेचैनी सिर्फ़ और सिर्फ़ अशआर में ढलकर रह जानी थी।

अविनाश उवाच:
संसार की सर्व श्रेष्‍ट भाषा की ऐसी प्रशंसा? हिंदी कब संसार की सर्वश्रेष्‍ठ भाषा हो गयी... और राजेंद्र यादव ने गलत क्‍या कहा... पुराने साहित्‍य और नये समय के अंतर्विरोध को समझाने की कोशिश की। आपलोगों को मजे और वाहवाही के लिए नहीं, बल्कि समाज का दर्पण बनने के लिए साहित्‍य रचना चाहिए।

अभी और भी..........

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...
अधिकांश टिप्पणियां यह ज़ाहिर करती हैं कि हम वही सुनना चाहते हैं जो हमारे मन में है. अगर हम दूसरों की वह बात सुनने को तैयार न हों जो हमारे सोच से अलग है, तो फिर हमारे विवेक खुले मन वाला होने का क्या प्रमाण हो सकता है? राजेन्द्र यादव ने ऐसा भी बुरा क्या कह दिया? क्या समय के साथ चीज़ों को बदलना नहीं चाहिये? मैं लगभग चालीस बरस से हिन्दी पढा रहा हूं और जानता हूं कि हमारे पाठ्यक्रम कितने जड़ हैं. चन्द बरदाई, कबीर, तुलसी, सूर, बिहारी, केशव सब महान हैं, अपने युग में महत्वपूर्ण थे, लेकिन सामान्य हिन्दी के विद्यार्थी को उन्हें पढाने का क्या अर्थ है? तुलसी, सूर, बिहारी की भाषा आज आपकी ज़िन्दगी में कहां काम आएगी? मन्दाक्रांता, छन्द और किसम किसम के अलंकार आज कैसे प्रासंगिक हैं? अगर हम अपने विद्यार्थी को इन सब पारम्परिक चीज़ों के बोझ तले ही दबाये रखेंगे तो वह नई चीज़ें पढने का मौका कब और कैसे पाएगा? मुझे इस बात की ज़रूरत लगती है कि चीज़ों पर खुले मन से विचार किया जाए, न कि रूढ चीज़ों की बेमतलब जुगाली की जाए.


विजयशंकर चतुर्वेदी said...
मैं दुर्गा प्रसाद अग्रवाल को अधिक नहीं जानता लेकिन मान रहा हूँ कि उनकी टिप्पणी अब तक आई टिप्पणियों तक सबसे अधिक महत्वपूर्ण है. राजेन्द्र यादव ने जो कहा वह वेद वाक्य नहीं है. लेकिन राजेन्द्र यादव इस देश के चंद शीर्ष बुद्धिजीवियों में से हैं. उन्होंने इस महादेश में जो बुद्धि के नए द्वार खोले हैं, बहस के नए प्रतिमान खड़े किए हैं वह बहस वैदिक सभ्यता के बाद वह अर्गल है. बजाए इसके कि हम उनकी बातों पर विचार करें आलोचना पर उतर आए. धिक्कार है ऐसे लोगो पर और.....!


शिरीष कुमार मौर्य said...
डी0पी0 अग्रवाल जी का अनुभव बोल रहा है। और कितना सार्थक बोल रहा है।विजय भाई ने भी इसे पहचाना ! आइए हम कुछ और लोग भी उसे पहचानें जो अग्रवाल जी कहना चाह रहे हैं।

Arvind Mishra said...
मैं शुरू से ही इस वाद में आने से कतरा रहा था -क्योंकि कथित /तथाकथित मठाधीशों से जुडी चर्चाओं से मुझे अलर्जी रही है -मैं तो एक बात ही शिद्दत के साथ महसूसता हूँ कि श्रेष्ठ साहित्य कालजयी होता है .अब आप नयी पीढी को क्या पढाएं क्या न पढाएं यह अलग मुआमला है मगर कबीर /तुलसी का साहित्य अप्रासंगिक नही हो जाता .और ये टिप्पणी कार महोदय तो धन्य ही है जो अपने जीवन के चालीस वर्ष बकौल उनके ही बरबाद कर चुके हैं और अब अपने फरमानों से आगामी पीढियों को बरबाद करने में लग जायेंगे .भाषा ,ज्ञान को करियर के काले चश्मे से देखने पर हम कहीं अपने जमीर से ही गद्दारी करते हैं सरोकारों से हटते हैं .बहुत कुछ लिखा जा सकता है मगर मैं हठात रोक रहा हूँ -अब राजेन्द्र यादव का खेमा दादुर धुन छेड़ रहा है !


संजय बेंगाणी said...
कुछ भी अलमारी में बन्द मत करो जी, नेट पर लाकर रख दो लोगो के सामने. सम्भव है इच्छा एक ही हो, अभिव्यक्ति अलग अलग हो.

ѕαηנαу ѕєη ѕαgαя said...
हिन्दी की अहमियत को इस तरह से नकारना और उसके दमन को नापाक करना !!निश्चित ही सर्मनाक है !!

Rajesh Ranjan said...
आलोचना से राजेन्द्र यादव को कतई परहेज नहीं होगा जैसा कि मैं उन्हें जानता रहा हूँ लेकिन हम दो-चार ब्लॉग लिखकर अपने को हिन्दी का सबसे बड़ा सेवक समझने वालों को जरूर कुछ लिखने के पहले समझना चाहिए हमारी बात किसे संदर्भ में लेकर कही जा रही है...वह व्यक्ति पिछले साठ वर्षों से सिर्फ हिन्दी में लिख -सोच रहा है...मुझे तो लगता है कि हिंदी को अधिक विचारशील बनाने में जितना यादवजी का योगदान है उतना किसी का नहीं...नहीं तो हिन्दी के ज्यादातर गोष्ठियाँ वाह रे मैं वाह रे आप के प्रतिमानों पर चला करती थी.


Taarkeshwar Giri said...
राजेंद्र यादव जी की चाहे आलोचना करी जाए या तारीफ वो तो जो कहना था कह गए, लेकिन सही नही बोले वो श्रीमान जी, यादव जी आप ख़ुद एक बहुत ही सम्मानिया पुरूष है , हमसे जयादा दुनिया देखी है आपने। क्या आप नही चाहेंगे की आने वाली पीढी आप के बारे मैं जाने , कैसे भुला सकते हैं हम अपने इतिहाश को, आपने जो भी कहा मैं ख़ुद उससे सहमत नही हूँ और मुझे ये भी पता है की मेरे सहमत होने या न होने से आपके उपर कोई फर्क भी पड़ेगा ।

Wednesday, September 24, 2008

दीप्ति नवल सहित चार कवियत्रियां

वो नहीं मेरा मगर/दीप्ति नवल
वो नहीं मेरा मगर उससे मुहब्बत है तो है
ये अगर रस्मों, रिवाज़ों से बगावत है तो है
सच को मैने सच कहा, जब कह दिया तो कह दिया
अब ज़माने की नज़र में ये हिमाकत है तो है
कब कहा मैनें कि वो मिल जाये मुझको, मै उसे
गर न हो जाये वो बस इतनी हसरत है तो है
जल गया परवाना तो शम्मा की इसमे क्या खता
रात भर जलना-जलाना उसकी किस्मत है तो है
दोस्त बन कर दुष्मनों सा वो सताता है मुझे
फ़िर भी उस जालिम पे मरना अपनी फ़ितरत है तो है
दूर थे और दूर हैं हरदम ज़मीनों-आसमाँ
दूरियों के बाद भी दोनों में कुर्बत है तो है।


स्त्रियां/अनामिका

पढ़ा गया हमको
जैसे पढ़ा जाता है काग़ज
बच्चों की फटी कॉपियों का
‘चनाजोरगरम’ के लिफ़ाफ़े के बनने से पहले!
देखा गया हमको
जैसे कि कुफ्त हो उनींदे
देखी जाती है कलाई घड़ी
अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद !

सुना गया हमको
यों ही उड़ते मन से
जैसे सुने जाते हैं फ़िल्मी गाने
सस्ते कैसेटों पर
ठसाठस्स ठुंसी हुई बस में !

भोगा गया हमको
बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह
एक दिन हमने कहा–
हम भी इंसान हैं
हमें क़ायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर
जैसे पढ़ा होगा बी.ए. के बाद
नौकरी का पहला विज्ञापन।

देखो तो ऐसे
जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है
बहुत दूर जलती हुई आग।

सुनो, हमें अनहद की तरह
और समझो जैसे समझी जाती है
नई-नई सीखी हुई भाषा।

इतना सुनना था कि अधर में लटकती हुई
एक अदृश्य टहनी से
टिड्डियाँ उड़ीं और रंगीन अफ़वाहें
चींखती हुई चीं-चीं
‘दुश्चरित्र महिलाएं, दुश्चरित्र महिलाएं–
किन्हीं सरपरस्तों के दम पर फूली फैलीं
अगरधत्त जंगल लताएं!
खाती-पीती, सुख से ऊबी
और बेकार बेचैन, अवारा महिलाओं का ही
शग़ल हैं ये कहानियाँ और कविताएँ।
फिर, ये उन्होंने थोड़े ही लिखीं हैं।’
(कनखियाँ इशारे, फिर कनखी)
बाक़ी कहानी बस कनखी है।

हे परमपिताओं
परमपुरुषों–
बख्शो, बख्शो, अब हमें बख्शो!




हर सांस बंदी है यहां /रमा द्विवेदी
कैसे करें उल्लास जब हर सांस बन्दी है यहां?
कैसे रचे इतिहास जब आकाश बन्दी है यहां?

अंकुर अभी पनपा ही था कि नष्ट तुमने कर दिया,
कैसे लेंगे जन्म जब गर्भांश बन्दी है यहां?
कैसे करें उल्लास जब हर सांस बन्दी है यहां?

सपने भी जब देखे हमने उनपे भी पहरे लगे,
कैसे पूरे होंगे जब हर ख्वाब बन्दी है यहां?
कैसे करें उल्लास जब हर सांस बन्दी है यहां?

सदियों से रितु बदली नहीं,अपनी तो इक बरसात है,
कैसे करें त्योहार जब मधुमास बन्दी है यहां?
कैसे करें उल्लास जब हर सांस बन्दी है यहां?

त्याग की कीमत न समझी त्याग जो हमने किए,
छीन लीन्हीं धडकनें पर,लाश बन्दी है यहां।
कैसे करें उल्लास जब हर सांस बन्दी है यहां?

कुछ कहने को जब खोले लब,खामोश उनको कर दिया,
कैसे करें अभिव्यक्त जब हर भाव बन्दी है यहां?
कैसे करें उल्लास जब हर सांस बन्दी है यहां?

खून की वेदी रचा कर तन को भी दफ़ना दिया,
कैसे जिएं? कैसे मरें? अहसास बन्दी है यहां।
कैसे करें उल्लास जब हर सांस बन्दी है यहां?


वान गॉग के अंतिम आत्मचित्र से बातचीत/अनीता वर्मा

एक पुराने परिचित चेहरे पर
न टूटने की पुरानी चाह थी
आंखें बेधक तनी हुई नाक
छिपने की कोशिश करता था कटा हुआ कान
दूसरा कान सुनता था दुनिया की बेरहमी को
व्यापार की दुनिया में वह आदमी प्यार का इन्तज़ार करता था

मैंने जंगल की आग जैसी उसकी दाढ़ी को छुआ
उसे थोड़ा सा क्या नहीं किया जा सकता था काला
आंखें कुछ कोमल कुछ तरल
तनी हुई एक हरी नस ज़रा सा हिली जैसे कहती हो
जीवन के जलते अनुभवों के बारे में क्या जानती हो तुम
हम वहां चल कर नहीं जा सकते
वहां आंखों को चौंधियाता हुआ यथार्थ है और अन्धेरी हवा है
जन्म लेते हैं सच आत्मा अपने कपड़े उतारती है
और हम गिरते हैं वहीं बेदम

ये आंखें कितनी अलग हैं
इनकी चमक भीतर तक उतरती हुई कहती है
प्यार मांगना मूर्खता है
वह सिर्फ किया जा सकता है
भूख और दुख सिर्फ सहने के लिए हैं
मुझे याद आईं विन्सेन्ट वान गॉग की तस्वीरें
विन्सेन्ट नीले या लाल रंग में विन्सेन्ट बुखार में
विन्सेन्ट बिना सिगार या सिगार के साथ
विन्सेन्ट दुखों के बीच या हरी लपटों वाली आंखों के साथ
या उसका समुद्र का चेहरा

मैंने देखा उसके सोने का कमरा
वहां दो दरवाज़े थे
एक से आता था जीवन
दूसरे से गुज़रता निकल जाता था
वे दोनों कुर्सियां अन्तत: खाली रहीं
एक काली मुस्कान उसकी तितलियों गेहूं के खेतों
तारों भरे आकाश फूलों और चिमनियों पर मंडराती थी
और एक भ्रम जैसी बेचैनी
जो पूरी हो जाती थी और बनी रहती थी
जिसमें कुछ जोड़ा या घटाया नहीं जा सकता था

एक शान्त पागलपन तारों की तरह चमकता रहा कुछ देर
विन्सेन्ट बोला मेरा रास्ता आसान नहीं था
मैं चाहता था उसे जो गहराई और कठिनाई है
जो सचमुच प्यार है अपनी पवित्रता में
इसलिए मैंने खुद को अकेला किया
मुझे यातना देते रहे मेरे अपने रंग
इन लकीरों में अन्याय छिपे हैं
यह सब एक कठिन शान्ति तक पहुंचना था
पनचक्कियां मेरी कमजोरी रहीं
ज़रूरी है कि हवा उन्हें चलाती रहे
मैं गिड़गिड़ाना नहीं चाहता
आलू खाने वालों और शराव पीने वालों के लिए भी नहीं
मैंने उन्हें जीवन की तरह चाहा है

अलविदा मैंने हाथ मिलाया उससे
कहो कुछ कुछ हमारे लिए करो
कटे होंठों में भी मुस्कराते विन्सेन्ट बोला
समय तब भी तारों की तरह बिखरा हुआ था
इस नरक में भी नृत्य करती रही मेरी आत्मा
फ़सल काटने वाली मशीन की तरह
मैं काटता रहा दुख की फ़सल
आत्मा भी एक रंग है
एक प्रकाश भूरा नीला
और दुख उसे फैलाता जाता है।



Tuesday, September 16, 2008

आवारा औरत



(पसंद से साभार)

मंजुला दो भाइयों की अकेली बहिन थी। छोटे से क़स्बे में पली-बढ़ी मंजुला ने स्नातकोत्तर तक की शिक्षा प्राप्त की और प्रायवेट कंपनी में काम करने लगी। उसने भी जीवन के वही सपने देखे जो हर लड़की देखती है। पिता ने अनेक वर ढूंढ़े पर कोई लड़का पसंद नहीं आया। एक दिन पिता खीज गए और लड़की को ताने देने लगे। लड़की महसूस कर गयी और कह दिया कि अगली बार कोई लड़का ढूंढ़ा जाएगा तो वह कुछ नहीं कहेगी।पिता ने एक बड़े शहर में लड़का ढूंढा। लड़के की शिक्षा असल से ज़्यादा बताई गई, उसका पद और तन्ख्वाह भी असल से ज़्यादा बताए गए। चूँकि रिश्ता रिश्तेदार करवा रहे थे तो ज़्यादा पूंछ्ताछ नहीं की गयी। लड़्की ने तो कुछ न बोलने का प्रोमिस कर ही दिया था सो शादी हो गयी।शादी होकर मंजुला ससुराल आगयी।

एक दिन अचानक ससुर का देहावसान हो गया। घर में मंजुला और उसके पति के अलावा उसकी सास और दो देवर थे। ससुर के मरने पर सास तो उदासीन हो गयी। मंजुला को घर की सारी ज़िम्मेदारी दे दी गयीं। वह चुपचाप सबकुछ करती रही। तभी उसे पता चला कि उसका पति न तो उतना कामाता है और न ही उसकी उतनी शिक्षा है। इतना ही नहीं वह शराब भी जी भरकर पीता है, जिसकारण से घर में पैसा भी नहीं देता है। बहुत निराश हुई मंजुला, फिर भी सोचा कि चलो पति को समझाया जाए शायद कुछ ठीक हो जाए पर कहाँ? वह तो मारपीट और करने लगा। रोज झगड़े होने लगे। सास तो बहु को ही कसूरवार ठहराती। देवर कुछ बीच में ही नहीं पड़ते। इसी बीच मंजुला ने एक पुत्र को जन्म दिया। कुछ समय बाद मंजुला ने पुनः जॉब पर जाने की सोची तभी सास ने बच्चे को रखने से मना कर दिया। अब क्या था निराश-हताश और परेशान मंजुला पैसे-पैसे को तरस गयी। एक दिन पति से अत्यधिक सतायी जाने पर उसने अपने बच्चे के साथ घर छोड़ दिया। अकेले अपनी किसी सहेली की मदद से किराए पर घर ले लिया। बच्चा क्रेचे में छोड़कर नई नौकरी करने लगी। चूंकि वह अकेली रहती थी तो ससुरालवाले जलभुन गए, क्योंकि इसतरह अकेली रहकर उनकी नाक काट रही थी वह। घर-बाहर के कई लोगों को समझाने के लिए भेजा। पर मंजुला अब और न सह सकती थी सो अडिग रही।

धीरे-धीरे मंजुला अपने को सहज बनाने की कोशिश करती रही। वह इतनी व्यस्त रहती कि किसी से बात भी न कर पाती लोगों ने अनेक तुक्के लगाने शुरु कर दिए। उसे अवारा और चरित्रहीन भी कहा जाने लगा। पुरुष उससे हंस-हंसकर बात करने की कोशिश करते और घर जाकर अपनी स्त्रियों से उससे बात करने से मना करते क्योंकि वह अच्छी स्त्री नहीं थी। स्त्रियाँ बिना जाने-बूझे उसे अवारा कहतीं। वह पूरी गली में अच्छी औरत नहीं मानी जाती। आते-जाते उसे अजीब नज़रों से देखा जाता! पर वह किसी बात की परवाह किए बिना अपनी ज़िंदगी जीती रही ऐसा नहीं था कि वह कभी पिघलकर आँसू नहीं बनती थी, पर उसे अपना जीवन-यापन करना आता था।

Tuesday, July 1, 2008

गांव की स्त्री के साथ मैत्रेयी पुष्पा

मुझे अपना दु:ख और संघर्ष हमेशा याद रहता है: मैत्रेयी पुष्पा

मैत्रेयी पुष्पा हिंदी साहित्य के समकालीन महिला लेखन की सुपर स्टार हैं। बेतवा बहती है, इदन्नमम्, चाक, अल्मा कबूतरी विजन, कही इसुरी फाग जैसे उपन्यासों की लेखिका। बुन्देलखण्ड की ग्रामीण स्त्री का हृदय जिनके उपन्यासों व कहानियों में धडकता है। शांत, सौम्य, शिष्ट। चेहरे पर निरन्तर बनी रहने वाली मंदस्मिति के बावजूद आंखों में जीवट वाली ग्रामीण स्त्री जैसी चमक व दृढता।

कथाकार अमरीक सिंह दीप से उनकी बातचीत

आप पहली महिला लेखिका हैं जिसने गांव की स्त्री की व्यथा को पूरी शिद्दत और गहराई से जाना समझा और व्यक्त किया है। आपके उपन्यासों इदन्नमम्, चाक और अल्मा कबूतरी की नायिकाएं जितनी प्रगतिशील दिखाई गई हैं क्या वर्तमान समय में गांव-समाज की स्त्रियां वास्तव में इतनी बदल चुकी हैं?

देखिए, प्रेमचंद ने कहा है कि साहित्य समाज के आगे चलने वाली मशाल है। गांवों में कई ऐसी स्त्रियां हैं, कहीं मुझे विशफुल थिंकिंग नहीं दिखानी पडी कि ऐसा होना चाहिए ऐसा होगा..ऐसी स्त्रियां एकदम निखालिस कहीं नहीं हैं। यह मेरी कल्पना का आकार है। कुछ यथार्थ, कुछ कल्पना। अनुपात जरूर उसका फर्क-फर्क हो सकता है। कहीं यथार्थ अधिक, कहीं कल्पना ज्यादा। और वह जो स्त्री है वह एक हिम्मत और हौसला है। खुद को व्यक्त करने की क्षमता आ रही है स्त्रियों में। इतना मैं दिखा रही हूं, लेकिन जहां मुझे कमजोर लगता है वहां मैं अपनी कल्पना से, विशफुल थिंकिंग से, आकांक्षा से अपने सपने को सच करती हूं।

एक संपन्न परिवार की महिला होने के बावजूद कैसे आप बुंदेलखण्ड के गांवों की निम्नवर्गीय स्त्री की समस्याओं व पीडाओं को इतनी गहराई से समझ और व्यक्त कर लेती हैं? उसके मन की भीतरी पर्तो में दबे दु:ख से साक्षात्कार कर लेती है?

असल में दीप जी, लोगों को ऐसा भ्रम है कि मैं एक संपन्न परिवार की महिला हूं। जब मैं महिला हुई और उत्तर अवस्था की महिला हुई तब सम्पन्नता दिखने लगी। उससे पहले मैं विपन्न, कस्तूरी कुण्डल बसे तो पढा होगा आपने, बहुत विपन्न और बहुत निम्न मध्य वर्ग की लडकी थी। जिसके पास कोई सहारा नहीं था, गांव की लडकियों के पास जो रक्षा होती है वह भी नहीं थी। जिसके पास रहने के लिए घर नहीं था, जिसके पास पढने के लिए साधन नहीं थे..

ये सारी बातें आपकी स्मृति में कैसे संचित रह गई?

देखिए, आदमी सुख भूल जाता है दु:ख नहीं भूलता। संघर्ष नहीं भूलता। मुझे अपना दु:ख और संघर्ष हमेशा याद रहता है। इस बात को अगर मैं पलट दूं कि आदमी सारी उम्र भूल जाता है बचपन नहीं भूलता। तो बचपन ऐसी निश्छल चीज है जो अभी तक याद है। मेरा बचपन विपन्नता और संकटों में गुजरा। वही सब मेरे साथ रहा जिसे मैं साहित्य में ले आई।

इस वक्त आप क्या लिख रही हैं?

मैं अपनी आत्मकथा कस्तूरी कुंडल बसे का दूसरा भाग लिख रही हूं, क्योंकि वह बहुत जरूरी है। सोचा था, कभी न कभी लिखूंगी, लेकिन जो पाठक वर्ग का कहना है कि कस्तूरी कुण्डल बसे के बाद यह बताइये कि आप लेखिका कैसे बनीं? जो लडकी इस तरह की थी वह लेखिका कैसे बन गई? इतने बीहड से आकर। और मेरे लेखिका बनने से मेरी शादी का, मेरे पति का कोई सहयोग नहीं। यह तो मेरे अन्दर ही कुछ होगा.. होगा। उसी ने किया यह सब।.. लेकिन कैसे बन गई यही सब बताना है मुझे।

एक स्त्री के रूप में आप कैसा महसूस करती हैं? एक नामी डॉक्टर की पत्नी और हिन्दी साहित्य की एक प्रतिष्ठित लेखिका, इन दोनों रूपों के बीच में?

देखिए, डाक्टर की पत्नी मैंने खुद को कभी महसूस ही नहीं किया। यह ठीक कि मैं शादी करके आई हूँ। उन्नीस वर्ष में शादी हुई थी मेरी। शादी के एक वर्ष बाद के रोमानी दिनों की, अभी जब मैं पुरानी चिट्ठियां निकाल कर पढ रही थी, एक चिट्ठी में एक वाक्य है-कि मैंने तो साथी-सखा ढूंढा था। तुम तो मालिक हो गए।.. तो मुझे एकदम से लगा कि ये कीटाणु कब से रेंग रहे थे, कुलबुला रहे थे, जो मैंने यह लिख दिया।.. तो यह कि पत्नी कभी माना ही नहीं मैंने खुद को। इसे मेरे पति का दुर्भाग्य ही समझ लीजिए कि पत्नी की तरह कभी मैंने उनकी सेवा नहीं की। जैसे दूसरी पत्नियां करती हैं कि कहीं जा रहे हैं तो अटैची लगा दी, नहाने जा रहे हैं तो कपडे रख दिए, जो उनके कपडे प्रेस करती है। यह सब कभी नहीं किया मैंने और न पति ने इस बात की कभी शिकायत की। उन्होंने हमेशा खुद अपना काम कर लिया। उनके कहीं जाने पर जब मैं नहीं पूछती कि तुम लौट के कब आओगे तो लोगों को इससे बहुत शिकायत होती है कि वो जाते हैं तो तुम इतना तो पूछ लेती कब आओगे? उल्टा उनके जाने से मैं खुद को स्वतंत्र महसूस करती। सोचती कि अब मैं कुछ मन का करूंगी। कुछ गजलें सुनूगीं, कुछ ये सुनूंगी, कुछ वो सुनूंगी, कुछ मूर्खताएं और गल्तियां करूंगी। मतलब यह कि उन्मुक्त हो जाऊंगी। जैसे कि मालिक एक भार था जो हट गया है सिर से।

जैसे पेपरवेट उठ गया हो और उसके नीचे दबे पन्ने हवा में उडने लगे हों?

हाँ, इस तरह मैं उडूंगी, चाहे घर में ही क्यों न उडूं। हालांकि पति सोचते थे कि यह क्यों नहीं मानती। दूसरी स्त्रियों का उदाहरण भी देते थे मुझे। मैं कहती पता नहीं, मैंने तुमसे शादी इसलिए नहीं की। यूं हमारी लव मैरिज नहीं अरेन्ज्ड मैरिज थी लेकिन अरेन्ज्ड मैरिज भी मेरी मर्जी से हुई थी, लेकिन मैं तुमको पति मान कर नहीं आई थी। मैंने तो सोचा था कि कोई साथी मिलेगा।..तो यह समझ लीजिए कि मैंने पत्नी कभी नहीं माना अपने आपको। और अगर कोई लेखिका कहता है तो मैं संकुचा जाती हूँ। संकोच होता है कि मैं कहां की लेखिका।

मैत्रेयी पुष्पा से यह संवाद कर चकित हूं। सोच रहा हूं, क्या हंस के संपादकीय में वर्णित मरी हुई गाय ऐसी होती है? कितने गलत थे पुराने लोग जो कहा करते थे कि औरत तो बेचारी गाय होती है; जिस खूंटे से बांध दो बंध जाती है। नहीं, स्त्री गाय नहीं होती। वह भी एक इंसान है। एक संपूर्ण व्यक्तित्व। एक समग्र सत्ता।

Wednesday, June 11, 2008

तसलीमा नसरीन हाजिर हों...!

सोनिया गांधी की तरह कुछ लोग परिदृश्य से लापता हैं। कोई अता-पता नहीं। कहीं कोई चर्चा-फर्चा नहीं। अखबारी सुर्खियों से भी गायब हैं। उनके बिना मौसम में बड़ी खामोशी है।
एक दिन जनता की अदालत में उनकी बड़ी पुकार मची कुछ इस तरह....

तसलीमा नसरीन हाजिर हों!
महाश्वेता देवी हाजिर हों।

वीपी सिंह हाजिर हों।
अमर सिंह हाजिर हों।
लालू यादव हाजिर हों।


नामवर सिंह हाजिर हों।
राजेंद्र यादव हाजिर हों।
प्रभाष जोशी हाजिर हों।
काशीनाथ सिंह हाजिर हों।

...और अंत में अर्दली बोला.....हुजूर, कोई नहीं बोल रहा। किसी का कुछ अता-पता नहीं।

Sunday, June 1, 2008

बेटे ने दिया बालश्रम का नुस्खा

वाह रे आजादी! वाह रे मनमानी! वाह रे शर्तें! वाह रे बाल श्रम! वाह रे पारिश्रमिक! अभी से ये हाल है। आगे क्या होगा! राम जाने! छोटे मुंह बड़ी-बड़ी बातें। किसी और की नहीं। मेरे बेटे की। आज तो अपनी एक मामूली सी शर्त यानी यूं ही भुला दी जाने वाली बात से मेरी आंखें खोल दीं। मुझे अचकचा दिया। बिजली नहीं थी। अंधेरे में मैं उसे देर तक घूरती रही।उसकी अलबेली शर्त को सोच-सोच कर मुस्कराती और उसकी अक्ल के साथ जोड़ कर उसके भविष्य का हिसाब किताब लगाती रही। वाह रे मेरा बेटा! वाह-वाह!!
मैं सोचती रही कि अपनी जिंदगी, अपने सफरनामे के बारे में मैंने ऐसा हिसाब-किताब कभी क्यों नहीं लगाया! मैंने अपने भविष्य और अपने व्यक्तिगत श्रम के बारे में कभी इस तरह क्यों नहीं सोचा! खैर, इसके पीछे मेरे वर्तमान की अपनी वजहें हो सकती हैं। इसके वर्तमान में मैं हूं। मैं सीधे उसकी उस शर्त पर आती हूं, जो कहने-सुनने में तो मामूली लगती है लेकिन आप भी फकत गौर फरमायें तो उसकी तासीर सिर नचाकर रख देगी।


बेटा बोला...
मम्मी आज से मैं यूं ही आपकी बात-बात पर टहल नहीं बजाऊंगा। आपके छोटे-छोटे काम मेरा पूरा रुटीन बिगाड़ देते हैं।

मैंने पूछा....
वो कैसे?

बेटे ने कहा....
आप मिनट-मिनट पर कहती हैं. बेटा जरा पानी लाना, बेटा जरा टीवी स्टार्ट करना, बेटा जरा मोबाइल उठाना, बेटा जरा पापा को बुलाना, बेटा जरा पंखा चला देना, बेटा जरा मैग्जीन निकाल ले आना....बेटा जरा ये करना, बेटा जरा वो करना...मैं आजिज आ गया हूं आपकी इन छुटल्ली फरमाइशों से।

मैंने टोकते हुए पूछा..
तो तुम कहना क्या चाहते हो?


बेटे ने बेखटके कहा...
मम्मी आज से आपको और पापा को भी अपनी हर फरमाइश की कीमत अदा करनी पड़ेगी।

मैंने पूछा...
वो कैसे?

बेटा बोला....
मामूली फरमाइशों की कीमत भी मामूली होगी। जैसे ....पंखा चलाने के एक रुपये। फ्रिज से पानी ले आने के पचास पैसे। मैग्जीन या अखबार थमाने के एक रुपये। किचन से चाय ले आने के चार आने के हिसाब से सुबह-शाम की कुल चार चाय के दो रुपये। किसी को बुलाने के .. हर बुलावे का रेट होगा पचास पैसे। बाकी कामों के रेट आप ही तय कर दीजिए। मेरा रोजाना इतनी आमदनी से काम चल जाएगा।


मैंने अपना माथा ठनठनाते हुए कहा...
वाह बेटा, वाह! तुमने तो उस बालश्रम का पता-ठिकाना बता दिया, जिसका कोई नामलेवा नहीं था। तुमने नुस्खा दे दिया...बाकी श्रम विभाग और श्रम कानूनविद आगे का गणित लगाते रहे। ...और साथ ही, घरों में बच्चों पर अभिभावकत्व का तिलिस्म बघारने वाले गार्जियंस अपने-अपने गिरेबां में झांकते रहें कि वे निजी जीवन में कितने मानवीय हैं, कितने अमानवीय..अर्थात परजीवी!!!

Friday, May 30, 2008

खून के रिश्ते

कहते हैं खून के रिश्ते आख़िर खून के रिश्ते होते हैं, लाख रंजिश हो, एक को तकलीफ में देख कर दूसरा तड़प उठता है, लेकिन लगता है ये सारी बातें , सारे दावे बदलते वक़्त के साथ साथ अपनी हैसियत बुरी तरह खोते जारहे हैं. आज सारे रिश्ते अपनी पाकीज़गी तो खो ही रहे हैं, ऐसा लगता है जैसे अपना वजूद भी खोते जा रहे हैं. हर दिन हम किसी किसी रिश्ते को दम तोड़ता हुआ देखने पर मजबूर हैं.

कल हल्द्वानी में हुयी एक घटना एक अजीब सी सोच को जन्म दे कर चली गई.
वाकया कुछ यूँ ही कि मुन्ना मंसूरी नाम के आदमी की बेटी रेशमा ने साल भर पहले अपने पड़ोस में रहने वाले लड़के से प्रेम विवाह किया था . लड़की के घर वाले इस रिश्ते के ख़िलाफ़ थे. बहरहाल दोनों हँसी खुशी जिंदगी गुजार रहे थे. रेशमा गर्भवती थी. बुधवार की शाम दोनों बाज़ार से खरीदारी कर के कार से लौट रहे थे. रास्ते में रेशमा के भाईयों ने उन पर धारदार हथियारों से हमला कर दोनों को बुरी तरह लहुलुहान कर दिया. लोगों ने जैसे तैसे दोनों को अस्पताल पहुंचाया, जहाँ देर रात , पहले रेशमा के साथ उसके पेट में आठ महीने के बच्चे , और थोडी देर बाद उसके पति की भी मौत हो गई.

इंसानियत और रिश्तों को शर्मसार करने वाली इस घटना से लोग भड़क उठे और उन्होंने रेशमा के भाइयों को पकड़ कर खूब पीटा और उनके घर को आग के हवाले कर दिया.

ये कोई अनोखी घटना नही है, ऐसी या इस से मिलती जुलती घटनाएं रोजाना हमारे अखबारों का हिस्सा बनती रहती हैं. हम सुबह की चाय के साथ इन्हें पढ़ते हैं और भूल जाते हैं. आरूशी हत्याकांड जैसी कुछ हाई प्रोफाइल घटनाएं ज़रूर लोगों की दिलचस्पी का कारण बनती हैं क्योंकि मीडिया दिन रात इनको हाई लाईट करता है.

लेकिन बहुत कम लोग हैं जो ये सोचते हैं कि आख़िर ऐसी घटनाओं का कारण क्या है?

रिश्ते कहाँ खोते जारहे हैं?

ज़रा ध्यान से ऐसी घटनाओं पर गौर करें तो एक सीधी साफ वजह समझ में आती है. वजह है बेटियाँ….

ऐसे सारे मामलों में आम तौर पर यही देखा गया है कि लड़की के घर वाले बेटी के साथ दामाद या उसके प्रेमी को मौत के घाट उतार देते हैं. कारण साफ है कि बेटी की दिखायी हिम्मत उन्हें रास नही आती और वो इसको अपने स्वाभिमान का मसला बना लेते हैं और इस कदर बना लेते हैं कि उसके आगे ना उन्हें रिश्ते दिखायी देते हैं उसके बाद होने वाली क़यामत का अहसास होता है.

ये स्वाभिमान सिर्फ़ बेटी की हिम्मत पर क्यों?

लड़के भी अपनी मरजी से शादी करते हैं. कई बार जात बिरादरी, यहाँ तक कि अपने धर्म से अलग लड़की से करते हैं. लड़के के घर वाले बड़े आराम से उन्हें माफ़ कर देते हैं लेकिन यही काम जब एक लड़की करती है तो सज़ा ही हक़दार क्यों ठहराई जाती है?

इस दोहरे मापदंड की वजह सदियों से बेटी को अपनी जायदाद समझने की मानसिकता रही है.

आज भी हम बेटी बहुओं को अपनी प्रापर्टी समझते हैं.

हमारी जायदाद सिर्फ़ हमारी है, जब इस जायदाद को किसी और को ले उड़ता देखते हें तो हमारा खून खौल उठता है और हम हर अंजाम को भूल कर मरने मारने पर तुल जाते हैं.

आख़िर ऐसा कब तक होता रहेगा?

हम क्यों नही समझते कि हमारी बेटियाँ भी इंसान हैं, उनके भी जज्बात हो सकते हैं, उन की भी कोई मरजी , पसंद ना पसंद हो सकती है.

ठीक है कि माँ बाप दुनिया को उन से ज़्यादा समझते है. ग़लत बातों पर उन्हें प्यार से समझया जासकता है. उंच नीच बताई जासकती है. लेकिन जब वो अपनी मरजी कर ही लें तो उन्हें उनकी जिंदगी का जिम्मेदार समझ कर हँसी खुशी रहने क्यों नही दिया जाता?

बीच में ये स्वाभिमान का मसला कहाँ से आजाता है?

जब तक हम बेटे और बेटियों को समान अधिकार नही देंगे, सवाभिमान कि ये आग ऐसे ही खूनी ताण्डव कराती रहेगी.

प्रस्तुतकर्ता- rakshchanda

Monday, May 26, 2008

जहांआरा मर रही है, उसे तुरंत मदद चाहिए

देर रात ईटीवी ने पूरे देश से की गुहार। आगरा में एक मां अपनी बेटी की मौत की दुआ कर रही है। लोहामंडी मेंरहती है वह। तिल-तिल मर रही है।
पैसे की कमी से डाक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए हैं। मां 20-20 रुपये में कुरान पढ़ाकर पैसे जुटा रही है, लेकिन उससेइलाज क्या होगा, घर का खर्चा भी बमुश्किल चल पा रहा है।
जहांआरा की दास्तान आंसुओं के सैलाब में डुबो देने वाली है। जब उसकी सगाई होने वाली थी, वह आग से जलगई। भावी ससुरालियों ने शादी रचाने से इंकार कर दिया।
इसके बाद साल-दर-साल गुजरते गए और मां-बेटी पर मुसीबतों का पहाड़ टूटता गया। मां भी अस्सी की दहलीजपार कर चुकी है। बेटी चारपाई पर पड़ी है।
अब बेवा मां आबिदा की एक ही ख्वाहिश है कि हे खुदा, तिल-तिल मर रही मेरी बेटी को इस दुनिया से उठा ले। मेरेमें इतना दम नहीं कि उसका दवा-इलाज कर सकूं। परवरिश का और कोई चारा नहीं
ईटीवी की अपील पर मुरादाबाद, देहरादून, महाराष्ट्र आदि से कई लोगों ने जहांआरा की मदद में हाथ बढ़ा दिए। सहायताराशि देने के लिए जहांआरा का खाता नंबर भी जारी किया गया।
यदि कोई जहांआरा का सहयोग करना चाहे तो इस नंबर पर ईटीवी से सहयोग संबंधी विस्तृत जानकारी ले सकता है।

बहनों, तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं!


उसे उसके पति ने पीटा,
उसे उसके भाई ने मार डाला,
उसे उसके पिता ने जला दिया,
उसे उसके बेटे ने घर से निकाल दिया।
और क्या-क्या हुआ
उसके साथ?
और क्या-क्या हो रहा है
उसके साथ?
और क्या-क्या होने वाला है
उसके साथ?


एक.............
भारत में घरेलू झगड़ों में महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा को रोकने के तरीके ईजाद किये जाते रहे हैं लेकिन वे कितने कारगर हुए?

इस विधेयक की ख़ास बात ये है कि घरेलू हिंसा के दायरे में शारीरिक, मानसिक और यौन प्रताड़ना को तो शामिल किया ही गया है, साथ ही मारपीट की धमकी देने पर भी कार्रवाई हो सकती है.

एक महत्वपूर्ण बात इस विधेयक में यह कही गई है कि जो महिलाएँ बिना विवाह के किसी पुरुष के साथ रह रही हों, वो भी घरेलू हिंसा संबंधी विधेयक के दायरे में शामिल हैं.

विधेयक में इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि पीड़ित महिला हिंसा की शिकार ना हो, इसके लिए ग़ैरसरकारी संस्थाओं की मदद से सुरक्षा अधिकारी के इंतज़ाम करने का भी प्रावधान है.

सुरक्षा के इंतज़ाम

सरकार का कहना है कि इस क़ानून से महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा की रोकथाम में मदद मिलेगी.

इस क़ानून के तहत मजिस्ट्रेट पीड़ित महिला की सुरक्षा सुनिश्चित करने का आदेश दे सकता है जिसके तहत उसे प्रताड़ित करने वाला व्यक्ति उस महिला से संपर्क स्थापित नहीं कर सकेगा.

मजिस्ट्रेट की ओर से आदेश पारित होने के बाद भी अगर महिला को प्रताड़ित करने वाला व्यक्ति उससे संपर्क करता है या उसे डराता-धमकाता है तो इसे अपराध माना जाएगा और इसके लिए दंड और 20 हज़ार रुपए तक का जुर्माना लगाया जा सकता है.

मजिस्ट्रेट इस मामले में महिला के दफ़्तर या उसके कामकाज की जगह पर प्रताड़ित करने वाले व्यक्ति के प्रवेश पर रोक लगा सकता है.

भारत में घरेलू हिंसा की घटनाओं का स्तर कई देशों की तुलना में बहुत अधिक है और लंबे समय से ऐसे क़ानून की माँग महिला संगठनों की ओर से होती रही है।


दो................

एक सर्वे के मुताबिक अमेरिका के करीब एक-तिहाई पुरुष घरेलू हिंसा के शिकार है। यह अलग बात है कि महिलाओं के उलट, पुरुषों की यह पीड़ा सामने नहीं आ पाती। इस उत्पीड़न का पुरुषों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। इस सर्वे में 400 लोगों की राय शामिल की गई। इनसे टेलीफोन पर सवाल-जवाब किए गए। साक्षात्कार में पांच प्रतिशत पुरुषों ने पिछले साल घरेलू हिंसा का शिकार होने की बात स्वीकारी, जबकि 10 फीसदी ने पिछले पांच सालों के दौरान और 29 फीसदी पुरुषों ने जीवन में कभी न कभी घरेलू हिंसा का शिकार होने की बात कबूल की। यह सर्वे राबर्ट जे रीड की अगुवाई में हुआ। रीड का कहना है कि पुरुष प्रधान समाज में घरेलू हिंसा के शिकार पुरुष शर्मिदगी महसूस करते है, क्योंकि समाज में उनको शक्तिशाली माना जाता है। वह बताते हैं कि घरेलू हिंसा के शिकार पुरुषों में युवाओं की संख्या कहीं ज्यादा है। 55 साल से अधिक उम्र वाले लोगों की तुलना में युवाओं की संख्या दोगुनी बताई गई है। रीड ने कहा कि इसका कारण है कि 55 से ऊपर के पुरूष घरेलू हिंसा के बारे में बात करने को तैयार नहीं होते हैं। अध्ययन ने इस भ्रम को भी गलत साबित कर दिया है कि घरेलू हिंसा के शिकार पुरूषों पर इसका कोई गंभीर प्रभाव नहीं पड़ता। शोधकर्ताओं ने पाया कि घरेलू प्रताड़ना का शिकार पुरूषों के मानसिक स्वास्थ्य पर इसका काफी गंभीर प्रभाव पड़ता है। सर्वे में घरेलू हिंसा के दायरे में धमकाना, अभद्र टिप्पणी, शारीरिक हिंसा-मारपीट या फिर यौन संबंध के लिए मजबूर करने करना आदि को शामिल किया गया था।

तीन..........
हमारे देश में दो एक ही लिंग के व्यक्ति साथ नहीं रह सकते हैं और न उन्हें कोई कानूनन मान्यता या भरण-पोषण भत्ता दिया जा सकता है। यह भी एक महत्वपूर्ण सवाल है कि क्या किसी महिला को, उस पुरुष से भरण-पोषण भत्ता मिल सकता है जिसके साथ वह पत्नी की तरह रह रही हो जब कि-
उन्होने शादी की हो; या
  • वे शादी नहीं कर सकते हों।
पत्नी का अर्थ केवल कानूनी पत्नी ही होता है। इसलिए न्यायालयों ने इस तरह की महिलाओं को भरण-पोषण भत्ता दिलवाने से मना कर दिया। अब यह सब बदल गया है।

संसद ने, सीडॉ के प्रति हमारी बाध्यता को मद्देनजर रखते हुए, घरेलू हिंसा अधिनियम (Protection of Women from Domestic Violence Act) २००५ पारित किया है। यह १७-१०-२००६ से लागू किया गया। यह अधिनियम आमूल-चूल परिवर्तन करता है। बहुत से लोग इस अधिनियम को अच्छा नहीं ठहराते है, उनका कथन है कि यह अधिनियम परिवार में और कलह पैदा करेगा।

समान्यतया, कानून अपने आप में खराब नहीं होता है पर खराबी, उसके पालन करने वालों के, गलत प्रयोग से होती है। यही बात इस अधिनियम के साथ भी है। यदि इसका प्रयोग ठीक प्रकार से किया जाय तो मैं नहीं समझता कि यह कोई कलह का कारण हो सकता है।

इसका सबसे पहला महत्वपूर्ण कदम यह है कि यह हर धर्म के लोगों में एक तरह से लागू होता है, यानि कि यह समान सिविल संहिता स्थापित करने में बड़ा कदम है।

इस अधिनियम में घरेलू हिंसा को परिभाषित किया गया है। यह परिभाषा बहुत व्यापक है। इसमें हर तरह की हिंसा आती हैः मानसिक, या शारीरिक, या दहेज सम्बन्धित प्रताड़ना, या कामुकता सम्बन्धी आरोप।

यदि कोई महिला जो कि घरेलू सम्बन्ध में किसी पुरूष के साथ रह रही हो और घरेलू हिंसा से प्रताड़ित की जा रही है तो वह इस अधिनियम के अन्दर उपचार पा सकती है पर घरेलू संबन्ध का क्या अर्थ है।

इस अधिनियम में घरेलू सम्बन्ध को भी परिभाषित किया गया है। इसके मुताबिक कोई महिला किसी पुरूष के साथ घरेलू सम्बन्ध में तब रह रही होती जब वे एक ही घर में साथ रह रहे हों या रह चुके हों और उनके बीच का रिश्ता:
  • खून का हो; या
  • शादी का हो; या
  • गोद लेने के कारण हो; या
  • वह पति-पत्नी की तरह हो; या
  • संयुक्त परिवार की तरह का हो।

इस अधिनियम में जिस तरह से घरेलू सम्बन्धों को परिभाषित किया गया है, उसके कारण यह उन महिलाओं को भी सुरक्षा प्रदान करता है जो,
  • किसी पुरूष के साथ बिना शादी किये पत्नी की तरह रह रही हैं अथवा थीं; या
  • ऐसे पुरुष के साथ पत्नी के तरह रह रही हैं अथवा थीं जिसके साथ उनकी शादी नहीं हो सकती है।

इस अधिनियम के अंतर्गत महिलायें, मजिस्ट्रेट के समक्ष, मकान में रहने के लिए, अपने बच्चों की सुरक्षा के लिए, गुजारे के लिए आवेदन पत्र दे सकती हैं और यदि इस अधिनियम के अंतर्गत यदि किसी भी न्यायालय में कोई भी पारिवारिक विवाद चल रहा है तो वह न्यायालय भी इस बारे में आज्ञा दे सकता है।

अगली बार चर्चा करेंगे वैवाहिक संबन्धी अपराध के बारे में और तभी चर्चा करेंगे भारतीय दण्ड सहिंता की उन धाराओं की जो शायद १९वीं सदी के भी पहले की हैं। जो अब भी याद दिलाती हैं कि पत्नी, पति की सम्पत्ति है। (उन्मुक्त से साभार)


चार...............

भारतीय परिवारों में बड़े पैमाने पर किए गए एक अध्ययन से यह साबित हुआ है कि घरेलू हिंसा के शिकार होने वाले भारतीय महिलाओं और बच्चों में कुपोषण का शिकार होने की संभावना औरों की अपेक्षा ज्यादा होती है। उन्हें रक्त और वजन की कमी जैसी समस्याओं से जूझना पड़ता है। यह तथ्य हार्वड स्कूल आफ पब्लिक हेल्थ (एचएसपीएच) द्वारा किए गए एक अध्ययन से सामने आए हैं।
एचएसपीएच में मानव विकास और स्वास्थ्य तथा समाज विषय के प्रोफेसर एस.वी. सुब्रमण्यम ने कहा
, ''इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं कि घरेलू हिंसा और कुपोषण का आपस में गहरा संबंध है। भारत में भोजन न देना भी हिंसा का ही एक रूप है और यह स्वास्थ्य से सीधा जुड़ा हुआ है।''

शोध के लिए भारतीय राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के 1998-99 के आंकड़ों का प्रयोग किया गया। अध्ययन में 15 से 49 आयुवर्ग की 69,072 महिलाएं तथा 14,552 बच्चे शामिल थे। इन सभी का प्रशिक्षित लोगों द्वारा व्यक्तिगत साक्षात्कार लिया गया। उनके साथ हुई घरेलू हिंसा के आंकड़ों के साथ ही उनके रक्त के नमूने लिए गए।

शोधकर्ताओं ने पाया कि जिन महिलाओं ने यह स्वीकार किया था कि पिछले एक वर्ष के दौरान वे एक से अधिक बार घरेलू हिंसा की शिकार हुईं उनमें रक्ताल्पता और वजन कम होने की शिकायतऔरों के मुकाबले 11 फीसदी और 21 फीसदी ज्यादा थी।

शोधकर्ताओं ने कहा कि घरेलू हिंसा का असर इतना ज्यादा है कि इसे रोक कर महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले नकारात्मक असर को रोका जा सकता है।