कहते हैं खून के रिश्ते आख़िर खून के रिश्ते होते हैं, लाख रंजिश हो, एक को तकलीफ में देख कर दूसरा तड़प उठता है, लेकिन लगता है ये सारी बातें , सारे दावे बदलते वक़्त के साथ साथ अपनी हैसियत बुरी तरह खोते जारहे हैं. आज सारे रिश्ते अपनी पाकीज़गी तो खो ही रहे हैं, ऐसा लगता है जैसे अपना वजूद भी खोते जा रहे हैं. हर दिन हम किसी न किसी रिश्ते को दम तोड़ता हुआ देखने पर मजबूर हैं.
कल हल्द्वानी में हुयी एक घटना एक अजीब सी सोच को जन्म दे कर चली गई.
वाकया कुछ यूँ ही कि मुन्ना मंसूरी नाम के आदमी की बेटी रेशमा ने साल भर पहले अपने पड़ोस में रहने वाले लड़के से प्रेम विवाह किया था . लड़की के घर वाले इस रिश्ते के ख़िलाफ़ थे. बहरहाल दोनों हँसी खुशी जिंदगी गुजार रहे थे. रेशमा गर्भवती थी. बुधवार की शाम दोनों बाज़ार से खरीदारी कर के कार से लौट रहे थे. रास्ते में रेशमा के भाईयों ने उन पर धारदार हथियारों से हमला कर दोनों को बुरी तरह लहुलुहान कर दिया. लोगों ने जैसे तैसे दोनों को अस्पताल पहुंचाया, जहाँ देर रात , पहले रेशमा के साथ उसके पेट में आठ महीने के बच्चे , और थोडी देर बाद उसके पति की भी मौत हो गई.
इंसानियत और रिश्तों को शर्मसार करने वाली इस घटना से लोग भड़क उठे और उन्होंने रेशमा के भाइयों को पकड़ कर खूब पीटा और उनके घर को आग के हवाले कर दिया.
ये कोई अनोखी घटना नही है, ऐसी या इस से मिलती जुलती घटनाएं रोजाना हमारे अखबारों का हिस्सा बनती रहती हैं. हम सुबह की चाय के साथ इन्हें पढ़ते हैं और भूल जाते हैं. आरूशी हत्याकांड जैसी कुछ हाई प्रोफाइल घटनाएं ज़रूर लोगों की दिलचस्पी का कारण बनती हैं क्योंकि मीडिया दिन रात इनको हाई लाईट करता है.
लेकिन बहुत कम लोग हैं जो ये सोचते हैं कि आख़िर ऐसी घटनाओं का कारण क्या है?
रिश्ते कहाँ खोते जारहे हैं?
ज़रा ध्यान से ऐसी घटनाओं पर गौर करें तो एक सीधी साफ वजह समझ में आती है. वजह है बेटियाँ….
ऐसे सारे मामलों में आम तौर पर यही देखा गया है कि लड़की के घर वाले बेटी के साथ दामाद या उसके प्रेमी को मौत के घाट उतार देते हैं. कारण साफ है कि बेटी की दिखायी हिम्मत उन्हें रास नही आती और वो इसको अपने स्वाभिमान का मसला बना लेते हैं और इस कदर बना लेते हैं कि उसके आगे ना उन्हें रिश्ते दिखायी देते हैं न उसके बाद होने वाली क़यामत का अहसास होता है.
ये स्वाभिमान सिर्फ़ बेटी की हिम्मत पर क्यों?
लड़के भी अपनी मरजी से शादी करते हैं. कई बार जात बिरादरी, यहाँ तक कि अपने धर्म से अलग लड़की से करते हैं. लड़के के घर वाले बड़े आराम से उन्हें माफ़ कर देते हैं लेकिन यही काम जब एक लड़की करती है तो सज़ा ही हक़दार क्यों ठहराई जाती है?
इस दोहरे मापदंड की वजह सदियों से बेटी को अपनी जायदाद समझने की मानसिकता रही है.
आज भी हम बेटी बहुओं को अपनी प्रापर्टी समझते हैं.
हमारी जायदाद सिर्फ़ हमारी है, जब इस जायदाद को किसी और को ले उड़ता देखते हें तो हमारा खून खौल उठता है और हम हर अंजाम को भूल कर मरने मारने पर तुल जाते हैं.
आख़िर ऐसा कब तक होता रहेगा?
हम क्यों नही समझते कि हमारी बेटियाँ भी इंसान हैं, उनके भी जज्बात हो सकते हैं, उन की भी कोई मरजी , पसंद ना पसंद हो सकती है.
ठीक है कि माँ बाप दुनिया को उन से ज़्यादा समझते है. ग़लत बातों पर उन्हें प्यार से समझया जासकता है. उंच नीच बताई जासकती है. लेकिन जब वो अपनी मरजी कर ही लें तो उन्हें उनकी जिंदगी का जिम्मेदार समझ कर हँसी खुशी रहने क्यों नही दिया जाता?
बीच में ये स्वाभिमान का मसला कहाँ से आजाता है?
जब तक हम बेटे और बेटियों को समान अधिकार नही देंगे, सवाभिमान कि ये आग ऐसे ही खूनी ताण्डव कराती रहेगी.
प्रस्तुतकर्ता- rakshchanda
Friday, May 30, 2008
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3 comments:
Respected madam,
your article "khun ke riste"was truly heart touching,actuaiilly i got married in same circumtances,so i can understand feeling in the article,keep going.you are good writer.
Rashmi saurana
अभी पढ़ा rakshchanda जी के ब्लॉग पर.
बहुत बढ़िया। पढ़ने बैठी तो पढ़कर ही नज़रे हटा पाई। वाकई औरत भी इंसान है, किसी की बपौती नहीं।
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