Sunday, February 22, 2009

स्त्री अब वंश चलाने की मशीन नहीं

स्त्रियों की दुनिया के बारे में, प्रेम के बारे में, शादी-व्याह के बारे में कई तरह की राय रही हैं. एक पक्ष कहता है कि प्रेम जीवित रहे, उष्मा बनी रहे, ये सब बकवास की बाते हैं. जिस तरह हर संपत्ति-साम्राज्य लूट, ठगी और अपराध की बुनियाद पर टिका होता है, उसी तरह परिवार का ताना- बाना स्त्री की गुलामी और अस्मिता-विहीनता की बुनियाद पर खड़ा है, चाहे परिवार का प्यार मूल्य-मुक्त प्यार होता ही नहीं. पूर्ण समानता और स्वतंत्र अस्मिता की चाहत रखने वाली कोई स्त्री भला क्यो चाहेगी कि बचा रहे इस तरह के परिवार बचे रहें. विवाह प्रथा की स्थापना के साथ ही एक ओर जहाँ मानव सभ्यता के उच्चतर, अधिक वैज्ञानिक नैतिक मूल्यों का जन्म हुआ, वहीं पुरुष द्वारा स्त्री को दास बनाए जाने की शुरुआत भी यहीं से हुई. धीरे-धीरे स्त्री एक सजीव, पारिवारिक संपत्ति में रूपांतरित होती गई. संपत्ति-संचय और क़ानूनी वारिसों को उसका हस्तांतरण परिवार का मुख्य उद्देश्य बन गया. सामंती समाज के पितृसत्तात्मक पारिवारिक ढाँचे में उपर से जो रागात्मकता, स्त्री के प्रति उदार संरक्षण-भाव, यदा-कदा श्रद्धा भाव और उसके सौंदर्य के प्रति सूक्ष्म जागरूकता दिखाई देती है, वह सब ऊपरी चीज़ है और खांटी ‘ पुरुष दृष्टि’ को वह सब कुछ भाता है. स्त्री सामंती समाज में विलासिता और निजी उपभोग की वस्तु मात्र थी और साथ ही वंश चलाने का ज़रूरी साधन. सामंत स्त्रियों के प्रति संरक्षण-भाव रखते थे. पुराने परवारिक ढांचे की सुखद रागात्मकता और काव्यात्मकता टूटने-बिखरने पर आज दुखी आत्माएं विलाप करती हैं. पूंजीवाद ने अपनी जरूरतों से स्त्रियों को चूल्हे-चौके की गुलामी से आंशिक मुक्ति दिलाई और स्त्रियाँ को दोयम दर्जे की नागरिकता देने के साथ ही उसे निकृष्टतम कोटि का उजरती गुलाम बनाकर सडकों पर धकेल दिया. उपभोक्ता संस्कृति में सूचना तंत्र, प्रचार तंत्र और नए मनोरंजन-उद्योग के अंतर्गत स्त्री ख़ुद में एक उपभोक्ता सामग्री बनकर रह गई. मध्ययुगीन प्यार के स्वप्नलोक में विचरण करती दुखी आत्माओं को लगने लगा कि परिवार टूट रहा है, प्रलय आ रहा है. लेकिन यह परिवार का टूटना नहीं बल्कि उसका रूपांतरण है. भारतीय समाज में स्त्रियों की पीड़ा दोहरी है. संयुक्त परिवार के ढांचे के टूटने, नाभिक परिवारों के बढ़ते जाने और आंशिक सामाजिक आजादी के बावजूद मूल्यों-मान्यताओं के धरातल पर वह पितृसत्तात्मक स्वेच्छाचारिता को भी भुगत रही है और उपभोक्ता संस्कृति की नई नग्न निरंकुशता को भी. पति उसे शिक्षित और आधुनिक देखना-दिखाना चाहता है. यह नहीं चाहता कि वह इसकी इच्छाओं की सीमारेखा टूटे. वह भी स्वतन्त्र हो. वह यह तो चाहता है कि घर का बोझ हल्का करने के लिए पत्नी कमाए, पर यह नहीं चाहता कि वह अपने दफ्तर या कारखाने में स्वतन्त्र रिश्ते बनाये. यंत्र मानव की तरह वह बस पैसे कमाये और आज्ञाकारी सुशील पत्नी की तरह समय से घर आ जाए. उच्च से लेकर उच्च मध्यवर्ग तक में, किटी पार्टियाँ, लायंस-रोटरी की पार्टियों में जाने की आजादी है और पत्नियों की अदलाबदली और स्वच्छंद यौनापभोग का खुला-गुप्त चलन भी बढ़ रहा है. मध्य वर्ग से लेकर कामगार वर्गों तक की कामकाजी स्त्रियों का शारीरिक-मानसिक श्रम सबसे सस्ता है. "जाने कहाँ गए वो दिन….." गाते हुए. रोते-सिसकते हुए, पुराने समय के "रागात्मक प्यार" और सुखद माहौल को याद करते हुए अंतत: करुण क्रंदन कर उठते हैं. महिलाओं के लिए 40 कानून बने हैं. सती प्रथा, दहेज हत्या, भ्रूण हत्या, डायन हत्या, घरेलू हिंसा पर कानून बन चुके हैं. लम्बे से समय से आधी आबादी ने अपने अधिकार के लिए, अपनी स्वतंत्रता के लिए जो आंदोलन घर के बाहर छेड़े, वह घर के अंदर नही छेड़ पाई है. अधिकार और स्वतंत्रता का जो दायरा कल था, वही आज भी है. भले वह ग्राम पंचायतों से संसद तक पहुंच गई हो, अपने परिवारों में वह आज वही होती है. सिर्फ शब्द बदल गये. आधी आबादी को नयी तकनीक के साथ जोड़ दिया गया लेकिन उसका मानसिक और शरीरिक शोषण उसी रफ्तार से चल रहा है. देश के अंदर स्त्री अधिकार के लिए बने कानून के साये में महिलाओं की भूमिका आज भी बुनियादी तौर पर कतई नहीं बदली है.
स्त्री संबंधों और हालात के बार में दूसरे पक्ष के तर्क कुछ अलग हैं. इसका कहना है कि भारत में यौन शुचिता और चरित्र समानार्थी हैं. उपभोक्तावाद अब भारतीय परिवारों के सामंती दरवाजों पर ठोकर मार रहा है. मूल्य दरक रहे हैं और अजीबो-गरीब लगने वाली घटनाएं घट रही हैं. 'सच्चरित्र` हत्यारिन मां या 'दुश्चरित्र` मटुकनाथों की अपवाद लगने वाली घटनाएं इस विध्वंस के आरंभिक संकेत हैं. उपभोक्तावाद के नकारात्मक प्रभावों को अपवाद मानकर उपेक्षित कर देना या इतिहास को घटते हुए महज देखते रहना भी बुद्धिमानी नहीं कही जा सकती. मध्यवर्ग में माता-पिता और संतान के पारंपरिक संबंध त्रासद स्थिति में पहुंचने लगे हैं. तकनीक ने श्रम को बेहद सस्ता कर दिया है. शहरों में भी एक हजार से तीन हजार तक की नौकरी करने वाले युवा हर जगह अंटे पड़े हैं. कंम्प्यूटर आपरेटर, रिसेप्सनिस्ट, नर्सें, सेल्स मैन, कूरियर पहुंचाने वाले, सुपरवाइजर नुमा लोग और अन्य नई सेवाओं में लगे इन युवाओं को भविष्य में भी अच्छा वेतन मिलने की कोई उम्मीद नहीं है. उपभोक्तावाद ने बाहरी चमक-दमक के साथ देह और स्वास्थ्य तक को उपभोग के दायरे में ला दिया है. ब्यूटी पार्लर, जिम से लेकर बाबा रामदेव जैसों के धंधे इसी कारण फल-फूल रहे हैं. विज्ञापनी दुनिया उन्हें लगातार बताती रहती है कि स्वस्थ शरीर में मंहगे वस्‍त्राभूषण फबते हैं. बुढ़ापे का पारंपरिक सहारा मानी जाती रही संतान भी अपने तात्कालिक सुखों में कटौती करने को तैयार नहीं हो पा रही है. भारतीय उत्तराधिकार विधान भी उन्हें इस बात के लिए प्रोत्साहित करता है कि उनकी पूरी संपत्ति सिर्फ उनके उपभोग के लिए है. भूमंडलीकरण की तरह उपभोक्तावाद भी एक यथार्थ है. इसे किसी धार्मिक नैतिकता या भारतीय संस्कृति की दुहाई देकर रोका नहीं जा सकता. न इसे अफगानिस्तान, इराक, पाकिस्तान आदि में इस्लामिक तालिबान रोक पाए, न ही भारत के हिन्दू तालिबानों में यह कुव्वत है. अक्सर मुगालते में रहने वाले कम्यूनिस्ट चाहें तो चीन घूम कर आ सकते हैं. वहां के शहरों में महज कुछ वर्ष में यूरोपिय शहरों से कहीं अधिक आलीशान मॉल, शापिंग काम्पलेक्सों ने आकार ले लिया है. वस्तुत: यह कुछ और नहीं परिवार का आंतरिक 'पूंजीवाद` है. यह किसी नैतिकता के रोके नहीं रूकने वाला. इसके जिम्मे एक नया समाज गढ़ने की जिम्मेदारी है. इसने जहां नए मध्यवर्ग में अभिभावक और संतान के संबंधों को कटूतापूर्ण बना दिया है वहीं इस तबके की महिलाओं के लिए आर्थिक मुक्ति के द्वार भी खोले हैं. यौन शुचिता संबंधी दुराग्रहों की समाप्ति की राह भी आने वाले समय में यहां से निकलेगी. अभिजात तबके में उपभोक्तावाद का असर कुछ अलग तरह का है. वहां इसने अभिभावक-संतान के संबंधों को मित्रतापूर्ण बनाया है. कौमार्य के बंधनों को ढीला किया है. अमिताभ-जया और अभिषेक बच्चन के संबंधों तथा सलमान, विवेक ओबराय और ऐश्वर्या राय के त्रिकोणात्मक प्रेम संबधों के बाद अभिषेक बच्चन से उसकी शादी को समझा जा सकता है. पूंजीपति परिवारों के बदलावों को पेज थ्री पार्टियों का निरंतर अध्ययन करते हुए भी देखा जा सकता है. वे अब तोंदियल सेठ-सेठानियां नहीं रहे हैं. अंधानुकरण की नकारात्मक प्रवृति पर पलने वाला उपभोक्तावाद भूल वश ही सही, अनेक सकारात्मक प्रवृतियों को भी मध्यमवर्ग तक पहुंचा रहा है.