Friday, February 22, 2008

इससे क्या फर्क पड़ता है तुम्हे


मैं औरत हूं
इसलिए हूं,
इससे क्या फर्क पड़ता है तुम्हे
कि हम हैं या नहीं भी हैं।

हम औरतें उठाती हैं सवाल
तुम करते हो ज्यादतियां और बहसें एक साथ
और हम होती हैं हैरान
या हलाल बार-बार
इससे क्या फर्क पड़ता है तुम्हें
कि हम हैं या नहीं भी हैं।

तुम रचते हो नर्क
हमारे लिए, अपने स्वर्ग के लिए,
करते हो तर्पण हमारी अस्मिता और अस्तित्व के,
बेंचते हो ऐश्वर्य और अनुभूतियां,
खरीदते रहते हो हमें
इससे क्या फर्क पड़ता है तुम्हे।

तुमने बना रखे हैं हमारे लिए
तहखानों के भीतर कई-कई तहखाने,
बुन रखी हैं कई-कई परतें,
जला रखे हैं ऊंची-ऊंची लपटों वाले अलाव,
जिसमें स्वाहा होता रहता है
हमारा सर्वस्व
इससे क्या फर्क पड़ता है तुम्हे।

...लेकिन नहीं,
अब और नहीं, इससे ज्यादा नहीं,
क्योंकि मालूम हो गई हैं हमें
तुम्हारी मर्दानगियों की हिकमतें,
पढ़ ली हैं हमनें
तुम्हारी इतनी सारी किस्से-कहानियों,
अब और कुछ
जानने-सुनने के लिए
बचा भी क्या है,
बची रह गई हैं हम और हमारी कोशिशें,
रंग लाएंगी
कभी-न-कभी, आज नहीं, तो कल
जरूर रंग लाएंगी
हमारी कोशिशों, तुम्हारी कोशिशों के समानांतर
या तुम्हारी कोशिशों के खिलाफ
गूंजेंगी हम समवेत,
जोर-जोर-से।

Thursday, February 21, 2008

ऐ लड़की तू चुप्प रह!

तुम लड़की हो,
तुम बहुत अच्छी तरह याद रखना
तुम जब घर की दहलीज़ पार करोगी
लोग तुम्हें तिरछी नजरों से देखेंगे.
तुम जब गली से होकर चलती रहोगी
लोग तुम्हारा पीछा करेंगे, सीटी बजायेंगे.
तुम जब गली पार कर मुख्य सड़क पर पहुंचोगी,
लोग तुम्हें चरित्रहीन कहकर गाली देंगे.
अगर तुम निर्जीव हो
तो तुम पीछे लौटोगी
वरना
जैसे जा रही हो, जाओगी.
(तसलीमा नसरीन)





हमारा
समाज और लड़कियों का त्याग, असल में इनका साथ चोलीदामन का है. दरअसल औरत के त्याग करने से हमारा ये समाज औरहमारे समाज के पुरुष बड़े खुश होते हैं और अपने पुरुषत्व को दुगनाहोते देख, बड़े गर्व से चलते हैं. किसी पुरुष के लिए यदि कोई स्त्री अपनेसारे रिश्ते छोड़ देती है, तो इसे देखकर वह पुरुष फूला नहीं समाता. पति को पत्नी का नौकरी करना पसंद नहीं, उसका लिखना-पड़ना पसंदनहीं और ऐसे में लड़की अपनी प्रगति के सभी रास्ते बंद कर लेती है तोपुरुष मन ही मन अत्यंत आह्लादित होता है.
जो लड़की नाचती या चित्रकारी करती है, उसका नाचना या चित्रांकन बंद करके पति महाशय बड़े गर्व के साथ कहतेहैं कि शादी के बाद उन्होंने अपनी पत्नी का नृत्य या चित्रांकन बंद करा दिया है. किसी पुरुष के कारण यदि कोईऔरत आत्महत्या करती है, तो वह पुरुष मुंह से कितना ही शोक क्यों जताये, मन ही मन नाखुश नहीं होते. पुरुषजीविका की क्षमता, व्यक्तिगत और विभिन्न तरह की प्रतिभा से परिपूर्ण हों और स्त्री अपनी प्रगति और प्रतिभा केसारे दरवाजे बंद कर, नि:स्व हो, उस पर निर्भर रहे यही हमारा भारतीय समाज
है. एक तरफा त्याग को हमारासमाज बहुत अहमियत देता है और खासकर वह त्याग किसी महिला द्वारा दिया गया हो. क्यों कि इस समाज केहाथ में बहुत सारे काले कानून हैं, जिन्हें समय और मौका देखकर औरत को नीचा दिखाने के लिए प्रयोग में लायाजाता है. पुरुष के हाथ में सामाजिक नीति और नियम के रूप में कुछ प्रतिष्ठित अन्याय और अत्याचार, कुछवैमनस्य और प्रार्थक्य हैं, जिन्हें वह प्राचीन काल से ढोता रहा है. उसके हाथ में है समाज की ओर से मिलनेवालीखुली छूट.
अपर्णा सेन की फिल्म
परमा में परमा नाम की महिला पारिवारिक यांत्रिक जीवन में पति और बच्चे को लेकर इसकदर उलझ जाती है कि उसे याद ही नहीं रहता कि वह कभी अच्छा सितार बजाती थी, कविताएं पढ़ती थी. परमाको अधेड़ उम्र में जब अपने सितार का मिज़राव मिलता है, तब उसमें ज़ंग लग चुका होता है. सास को दवा पिलाने, बच्चों का होमवर्क करवाने के अलावा यदि वह कहीं निकलती है तो वह है ज़्यादा से ज़्यादा न्यू मार्केट, मीनू का घरया फिर शीला का फ्लैट. परमा का पति भी जानता है कि उसकी पहुंच वहीं तक है. दरअसल हमारे समाज में 75 प्रतिशत औरतों की पहुंच को वहीं तक सीमित कर दिया जाता है. यद्यपि पति अपनी उड़ान के लिए लाल फीते कीकोई सीमा रखने को तैयार नहीं. परमा का पति होटल के कमरे में अपनी पीए को डिक्टेशन देने के बाद आदतनरात के खाने पर आमंत्रित करता है, जो सिर्फ खाद्य ग्रहण का आमंत्रण नहीं, बल्कि युवती के शरीर नामकखाद्य-पदार्थ का त्याग भी है.
लेकिन दूसरी तरफ परमा के किसी प्रेम में आबद्ध होते ही दोष जाता है. गैर मर्द के उसके शरीर को स्पर्श करतेही वह नख-शिख तक अपवित्र हो जाती है. पारिवारिक सीमा के बाहर किसी को प्रमे करने की स्वतंत्रता सिर्फ पुरुषको ही है, औरत के लिए उस पुरुष से बात करना भी अपराध है जिसके लिए उसके दिल में कोई सम्मान भाव भी हो. क्यों? क्योंकि नारी सिर्फ अपने पति की गुलाम है. इस गुलामी को अपर्णा सेन ने नहीं स्वीकारा. इस फिल्म केज़रिये उन्होंने समझाना चाहा है कि पुरुष ही नहीं एक स्त्री भी अपने जीवनकाल में किसी भी समय प्रेमाबद्ध होसकती है, इसमें अपराध जैसी कोई बात नहीं. कोई भी व्यक्ति किसी की व्यक्तिगत संपत्ति नहीं, सामाजिक संबंधतय हो जाने पर भी नहीं. लेकिन हमारा भारतीय समाज इस बात को नहीं स्वीकारता.
एक लड़की किसी बड़ी और अच्छी कंपनी में कार्यरत है, उसके काम और नाम को देखकर ही कोई लड़का उससे प्रेमकर बैठता है. लेकिन प्रेम के बाद जब शादी की नौबत आती है, तो अपने भविष्य और सपनों की बली लड़की को हीदेनी होती है. क्योंकि वह अब बच्चा पैदा करनेवाली मशीन और पति की सेविका बन गयी है. जब नौकरी का प्रसंगछिड़ता है तो लड़की कोई ना कोई बहाना बनाकर बात वहीं रोक देती है. उसकी नौकरी और लेखन सिर्फ घर कीदीवारें ही सुनती और पढ़ती हैं. कभी-कभी पति के कानों तक पहुंच कर यह आवाज भी दबा दी जाती है. औरत कीपहुंच घटते घटते इतनी कम हो जाती है कि कुछ समय बाद रुके रहने के सिवा और कोई चारा ही नहीं रहता.
अनाकांक्षा में ही जिसका जन्म
हुआ हो उसके लिए चारा भी क्या होगा. प्रसव कक्ष के बाहर इंतजार करते लोंगों मेंसे एक भी व्यक्ति नहीं चाहता कि बेटी हो. एक उच्च शिक्षित पुरुष भी एक स्वस्थ बच्चे के बजाय किसी पुत्र संतानको पाना ज्यादा पसंद करता है.

Wednesday, February 20, 2008

सीमोन तू तो बड़ी जिद्दी है

अरे यह तो मैं भी सोचती थी
मेरे भी मन में आयी थी ऐसी बात बार-बार कई बार
जब भी मैं ऐसा सोचती हूं
लगता है कहीं खलबली मच जाती है दूसरी ओर
....तो क्या यही है हमारी नियति
या उन सबकी ?
क्या पूरी दुनिया में औरत का चेहरा एक-सा है
उसे आधी दुनिया... गुलाम दुनिया ... हाशिये की हस्ती
या कोई और सिम्बल दिया जाना चाहिए
सोचो कि सीमोन क्यों सोचती थी इस तरह
कि स्त्री पैदा नहीं होती, बल्की उसे बना दिया जाता है
वह गांव में नाना के घर जाती थी छुट्टियां बीताने
खोई रहती थी किताबों में और अपने कल्पनालोक में
कितनी जिद्दी थी वह, अपने लिए नहीं
पूरी स्त्री जात के लिए
वह लेखक बनना चाहती थी
कहती थी मैं नहीं करूंगी किसी की प्रार्थना
मुझे यूशु पर भी विश्वास नहीं
डांटती थी बार-बार उसकी मां कि तू नास्तिक है
तू शादी नहीं करेगी
आवारा लड़कों के साथ घूमती रहती है तू
तू जितनी जिद्दी है उतनी ही तेज
तेरा पिता दिवालिया हो चुका है
तू नौकरी नहीं करेगी
क्यों ?
सीमोन आवारागर्द नहीं थी
औरत जात के दर्द की मारी हुई थी
सात्र था उसका सबसे शानदार दोस्त
उसी की तरह मेधावी और दुनियादारी की जड़ों से बाखबर।
ज्यां पाल की दोस्ती, सपनों के साथी हो चले दोनों
तभी सोचा उस जिद्दी लड़की ने
औरत और जानवर में क्या फर्क होता है,
सात्र चाहे जितना तड़पता रहे
उसकी राह अलग है
उसकी राह उस औरत की राह है
जिसे लांघने हैं अभी कई पहाड़
अपने विचारों में झरनों-सी झरती हुई,
पारंपरिक त्रासदि और पीड़ाओं में बहती हुई।
जिद्दी थी युद्ध से ज्यादा,
गुस्सैल इतनी कि कितनी भी कड़ी डांट फटकार पड़े
गूंगे की तरह चुप हो जाती थी
पढ़ना-लिखना, कहवा घरों में घंटों दोस्तों के साथ
विचारों कि गर्म-गर्म रेत पर टहलना
अंधरों की मस्ती में उड़ना
शौक था उस जिद्दी लड़की का
कहती थी वह
कोई स्त्री मुक्त नहीं
स्त्री होना गुनाह है
जैसे कहता था तुलसी
शूद्र-गंवार-ढोल-पशु-नारी-कुलच्छिन-कुल्टा
....और नहीं तो क्या
त्रियाचरित्रं ?
सीमोन ने कितनी तरह से सोचा था स्त्री को,
कितनी तरह से चाहा था स्त्री को
यह सोचना और चाहना
शायद
उसकी सबसे बड़ी ज़िद थी।

Monday, February 18, 2008

स्त्री...ओ ..स्त्री !!

स्त्री,
ओ स्त्री......
तू बोलती क्यों नहीं
तू हंसती क्यों नहीं
तू रोती क्यों नहीं
तू गाती क्यों नहीं
तू चुप क्यों रहती है
तू चीखती क्यों नहीं
तू चिल्लाती क्यों नहीं
तू डांटती-डपती क्यों नहीं
तू झटकती-झकझोरती क्यों नहीं
मारती-गरियाती क्यों नहीं
स्त्री तू चुप क्यों है
स्त्री.....स्त्री
तू कुछ कहती क्यों नहीं
तू जो कहती है
उसे कोई सुनता क्यों नहीं
तू जब रोती है
कोई तुझे चुप क्यों नहीं कराता
तू जब हंसती है
आधी दुनिया हंसती क्यों नहीं
तू झटकती-झकझोरती है
तू जब डांटती-डपती है
मारती-गरियाती है
चीखती-चिल्लाती है
तो क्या होता है???????????????????????.......................

सीमोन द बोउवार कहती हैं-
स्त्री कहीं झुंड बनाकर नहीं रहती। वह पूरी मानवता का आधा हिस्सा होते हुए भी पूरी एक जाति नहीं। गुलाम अपनी गुलामी से परिचित है और एक काला आदमी अपने रंग से, पर स्त्री घरों, अलग-अलग वर्गों एवं भिन्न-भिन्न जातियों में बिखरी हुई है। उसमें क्रांति की चेतना नहीं, क्योंकि अपनी स्थिति के लिए वह स्वयं जिम्मेदार है। वह पुरुष की सह अपराधिनी है। समाजवाद भी पुरुष की सर्वोपरिता की विजय बन जाएगा।
सीमोन का जन्म में फ्रांस में 9 जनवरी 1908 को एक मध्यमवर्गीय कैथोलिक परिवार में हुआ था। उन्होंने बचपन से ही स्त्री होने की पीड़ा को निकट से महसूस किया था। वह कहा करती थीं कि घर और अच्छी पत्नी से जुड़ी हर चीज मुझे मृत्यु-सी डरावनी लगती है। बड़े होने पर विद्रोही बेटी की तरह उनके संबंध पिता से खराब हो गए। 1926 में उन्होंने दर्शनशास्त्र का अध्ययन किया। बीस साल की उम्र में उनकी सार्त्र से मुलाकात हुई। उनसे उनके गहरे संबंध हो गए। दोनों ने साथ-साथ अध्ययन भी किया, परीक्षाएं दीं, पास हुए। तीन साल बाद वह दर्शनशास्त्र की अध्यापिका बनीं। वह अपनी छात्राओं में बहुत लोकप्रिय थीं। 1943 में उनका पहला उपन्यास शी केम टू स्टे सुर्खियों में आया। फिर सार्त्र के साथ उन्होने एक पत्रिका निकाली। 1945 तक दो उपन्यास और आ गए। वह लगातार लिखती रहीं, एक साथ कई मोरचों पर जूझती रहीं।14 अप्रैल 1986 को उनकी मृत्यु हो गई।
......अर्थात सीमोन को जानना, पढ़ना, एक मोकम्मल स्त्री होने की शुरुआत करना है। एक मोकम्मल स्त्री होने का मतलब है आधी दुनिया का मोकम्मल होना। और आधी दुनिया मोकम्मल हो जाने के बाद......!!

Sunday, February 17, 2008

लड़कियां कभी छोटी नहीं होतीं


लड़कियां
रोज सुबह
देहरी तक झाड़ू-पोंछा लगाती हैं
और घर हो जाती हैं।
....लड़कियां
हंसती हैं
और घूरने लगती हैं।
....लड़कियां
कभी छोटी नहीं होती हैं
बड़ी-बड़ी बातें करती हुईं।
छोटी-छोटी बातें करती हैं लड़कियां
और बड़ी हो जाती हैं।