तुम लड़की हो,
तुम बहुत अच्छी तरह याद रखना
तुम जब घर की दहलीज़ पार करोगी
लोग तुम्हें तिरछी नजरों से देखेंगे.
तुम जब गली से होकर चलती रहोगी
लोग तुम्हारा पीछा करेंगे, सीटी बजायेंगे.
तुम जब गली पार कर मुख्य सड़क पर पहुंचोगी,
लोग तुम्हें चरित्रहीन कहकर गाली देंगे.
अगर तुम निर्जीव हो
तो तुम पीछे लौटोगी
वरना
जैसे जा रही हो, जाओगी.
(तसलीमा नसरीन)
हमारा समाज और लड़कियों का त्याग, असल में इनका साथ चोलीदामन का है. दरअसल औरत के त्याग करने से हमारा ये समाज औरहमारे समाज के पुरुष बड़े खुश होते हैं और अपने पुरुषत्व को दुगनाहोते देख, बड़े गर्व से चलते हैं. किसी पुरुष के लिए यदि कोई स्त्री अपनेसारे रिश्ते छोड़ देती है, तो इसे देखकर वह पुरुष फूला नहीं समाता. पति को पत्नी का नौकरी करना पसंद नहीं, उसका लिखना-पड़ना पसंदनहीं और ऐसे में लड़की अपनी प्रगति के सभी रास्ते बंद कर लेती है तोपुरुष मन ही मन अत्यंत आह्लादित होता है.
जो लड़की नाचती या चित्रकारी करती है, उसका नाचना या चित्रांकन बंद करके पति महाशय बड़े गर्व के साथ कहतेहैं कि शादी के बाद उन्होंने अपनी पत्नी का नृत्य या चित्रांकन बंद करा दिया है. किसी पुरुष के कारण यदि कोईऔरत आत्महत्या करती है, तो वह पुरुष मुंह से कितना ही शोक क्यों न जताये, मन ही मन नाखुश नहीं होते. पुरुषजीविका की क्षमता, व्यक्तिगत और विभिन्न तरह की प्रतिभा से परिपूर्ण हों और स्त्री अपनी प्रगति और प्रतिभा केसारे दरवाजे बंद कर, नि:स्व हो, उस पर निर्भर रहे यही हमारा भारतीय समाज है. एक तरफा त्याग को हमारासमाज बहुत अहमियत देता है और खासकर वह त्याग किसी महिला द्वारा दिया गया हो. क्यों कि इस समाज केहाथ में बहुत सारे काले कानून हैं, जिन्हें समय और मौका देखकर औरत को नीचा दिखाने के लिए प्रयोग में लायाजाता है. पुरुष के हाथ में सामाजिक नीति और नियम के रूप में कुछ प्रतिष्ठित अन्याय और अत्याचार, कुछवैमनस्य और प्रार्थक्य हैं, जिन्हें वह प्राचीन काल से ढोता आ रहा है. उसके हाथ में है समाज की ओर से मिलनेवालीखुली छूट.
अपर्णा सेन की फिल्म परमा में परमा नाम की महिला पारिवारिक यांत्रिक जीवन में पति और बच्चे को लेकर इसकदर उलझ जाती है कि उसे याद ही नहीं रहता कि वह कभी अच्छा सितार बजाती थी, कविताएं पढ़ती थी. परमाको अधेड़ उम्र में जब अपने सितार का मिज़राव मिलता है, तब उसमें ज़ंग लग चुका होता है. सास को दवा पिलाने, बच्चों का होमवर्क करवाने के अलावा यदि वह कहीं निकलती है तो वह है ज़्यादा से ज़्यादा न्यू मार्केट, मीनू का घरया फिर शीला का फ्लैट. परमा का पति भी जानता है कि उसकी पहुंच वहीं तक है. दरअसल हमारे समाज में 75 प्रतिशत औरतों की पहुंच को वहीं तक सीमित कर दिया जाता है. यद्यपि पति अपनी उड़ान के लिए लाल फीते कीकोई सीमा रखने को तैयार नहीं. परमा का पति होटल के कमरे में अपनी पीए को डिक्टेशन देने के बाद आदतनरात के खाने पर आमंत्रित करता है, जो सिर्फ खाद्य ग्रहण का आमंत्रण नहीं, बल्कि युवती के शरीर नामकखाद्य-पदार्थ का त्याग भी है.
लेकिन दूसरी तरफ परमा के किसी प्रेम में आबद्ध होते ही दोष आ जाता है. गैर मर्द के उसके शरीर को स्पर्श करतेही वह नख-शिख तक अपवित्र हो जाती है. पारिवारिक सीमा के बाहर किसी को प्रमे करने की स्वतंत्रता सिर्फ पुरुषको ही है, औरत के लिए उस पुरुष से बात करना भी अपराध है जिसके लिए उसके दिल में कोई सम्मान भाव भी हो. क्यों? क्योंकि नारी सिर्फ अपने पति की गुलाम है. इस गुलामी को अपर्णा सेन ने नहीं स्वीकारा. इस फिल्म केज़रिये उन्होंने समझाना चाहा है कि पुरुष ही नहीं एक स्त्री भी अपने जीवनकाल में किसी भी समय प्रेमाबद्ध होसकती है, इसमें अपराध जैसी कोई बात नहीं. कोई भी व्यक्ति किसी की व्यक्तिगत संपत्ति नहीं, सामाजिक संबंधतय हो जाने पर भी नहीं. लेकिन हमारा भारतीय समाज इस बात को नहीं स्वीकारता.
एक लड़की किसी बड़ी और अच्छी कंपनी में कार्यरत है, उसके काम और नाम को देखकर ही कोई लड़का उससे प्रेमकर बैठता है. लेकिन प्रेम के बाद जब शादी की नौबत आती है, तो अपने भविष्य और सपनों की बली लड़की को हीदेनी होती है. क्योंकि वह अब बच्चा पैदा करनेवाली मशीन और पति की सेविका बन गयी है. जब नौकरी का प्रसंगछिड़ता है तो लड़की कोई ना कोई बहाना बनाकर बात वहीं रोक देती है. उसकी नौकरी और लेखन सिर्फ घर कीदीवारें ही सुनती और पढ़ती हैं. कभी-कभी पति के कानों तक पहुंच कर यह आवाज भी दबा दी जाती है. औरत कीपहुंच घटते घटते इतनी कम हो जाती है कि कुछ समय बाद रुके रहने के सिवा और कोई चारा ही नहीं रहता.
अनाकांक्षा में ही जिसका जन्म हुआ हो उसके लिए चारा भी क्या होगा. प्रसव कक्ष के बाहर इंतजार करते लोंगों मेंसे एक भी व्यक्ति नहीं चाहता कि बेटी हो. एक उच्च शिक्षित पुरुष भी एक स्वस्थ बच्चे के बजाय किसी पुत्र संतानको पाना ज्यादा पसंद करता है.
Thursday, February 21, 2008
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2 comments:
स्त्री को दबाना और उससे त्याग चाहना, यह हमारी अंदर की असुरक्षा और हीनता की भावना का ही एक रूप है, जब अपने अंदर असुरक्षा और हीनता की भावना कम हो जाती है तो दूसरे व्यक्ति को छोटा करके अपने बड़प्पन दिखाने की चाह भी शायद कम हो जाती है.
सुनील
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