Wednesday, September 24, 2008

दीप्ति नवल सहित चार कवियत्रियां

वो नहीं मेरा मगर/दीप्ति नवल
वो नहीं मेरा मगर उससे मुहब्बत है तो है
ये अगर रस्मों, रिवाज़ों से बगावत है तो है
सच को मैने सच कहा, जब कह दिया तो कह दिया
अब ज़माने की नज़र में ये हिमाकत है तो है
कब कहा मैनें कि वो मिल जाये मुझको, मै उसे
गर न हो जाये वो बस इतनी हसरत है तो है
जल गया परवाना तो शम्मा की इसमे क्या खता
रात भर जलना-जलाना उसकी किस्मत है तो है
दोस्त बन कर दुष्मनों सा वो सताता है मुझे
फ़िर भी उस जालिम पे मरना अपनी फ़ितरत है तो है
दूर थे और दूर हैं हरदम ज़मीनों-आसमाँ
दूरियों के बाद भी दोनों में कुर्बत है तो है।


स्त्रियां/अनामिका

पढ़ा गया हमको
जैसे पढ़ा जाता है काग़ज
बच्चों की फटी कॉपियों का
‘चनाजोरगरम’ के लिफ़ाफ़े के बनने से पहले!
देखा गया हमको
जैसे कि कुफ्त हो उनींदे
देखी जाती है कलाई घड़ी
अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद !

सुना गया हमको
यों ही उड़ते मन से
जैसे सुने जाते हैं फ़िल्मी गाने
सस्ते कैसेटों पर
ठसाठस्स ठुंसी हुई बस में !

भोगा गया हमको
बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह
एक दिन हमने कहा–
हम भी इंसान हैं
हमें क़ायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर
जैसे पढ़ा होगा बी.ए. के बाद
नौकरी का पहला विज्ञापन।

देखो तो ऐसे
जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है
बहुत दूर जलती हुई आग।

सुनो, हमें अनहद की तरह
और समझो जैसे समझी जाती है
नई-नई सीखी हुई भाषा।

इतना सुनना था कि अधर में लटकती हुई
एक अदृश्य टहनी से
टिड्डियाँ उड़ीं और रंगीन अफ़वाहें
चींखती हुई चीं-चीं
‘दुश्चरित्र महिलाएं, दुश्चरित्र महिलाएं–
किन्हीं सरपरस्तों के दम पर फूली फैलीं
अगरधत्त जंगल लताएं!
खाती-पीती, सुख से ऊबी
और बेकार बेचैन, अवारा महिलाओं का ही
शग़ल हैं ये कहानियाँ और कविताएँ।
फिर, ये उन्होंने थोड़े ही लिखीं हैं।’
(कनखियाँ इशारे, फिर कनखी)
बाक़ी कहानी बस कनखी है।

हे परमपिताओं
परमपुरुषों–
बख्शो, बख्शो, अब हमें बख्शो!




हर सांस बंदी है यहां /रमा द्विवेदी
कैसे करें उल्लास जब हर सांस बन्दी है यहां?
कैसे रचे इतिहास जब आकाश बन्दी है यहां?

अंकुर अभी पनपा ही था कि नष्ट तुमने कर दिया,
कैसे लेंगे जन्म जब गर्भांश बन्दी है यहां?
कैसे करें उल्लास जब हर सांस बन्दी है यहां?

सपने भी जब देखे हमने उनपे भी पहरे लगे,
कैसे पूरे होंगे जब हर ख्वाब बन्दी है यहां?
कैसे करें उल्लास जब हर सांस बन्दी है यहां?

सदियों से रितु बदली नहीं,अपनी तो इक बरसात है,
कैसे करें त्योहार जब मधुमास बन्दी है यहां?
कैसे करें उल्लास जब हर सांस बन्दी है यहां?

त्याग की कीमत न समझी त्याग जो हमने किए,
छीन लीन्हीं धडकनें पर,लाश बन्दी है यहां।
कैसे करें उल्लास जब हर सांस बन्दी है यहां?

कुछ कहने को जब खोले लब,खामोश उनको कर दिया,
कैसे करें अभिव्यक्त जब हर भाव बन्दी है यहां?
कैसे करें उल्लास जब हर सांस बन्दी है यहां?

खून की वेदी रचा कर तन को भी दफ़ना दिया,
कैसे जिएं? कैसे मरें? अहसास बन्दी है यहां।
कैसे करें उल्लास जब हर सांस बन्दी है यहां?


वान गॉग के अंतिम आत्मचित्र से बातचीत/अनीता वर्मा

एक पुराने परिचित चेहरे पर
न टूटने की पुरानी चाह थी
आंखें बेधक तनी हुई नाक
छिपने की कोशिश करता था कटा हुआ कान
दूसरा कान सुनता था दुनिया की बेरहमी को
व्यापार की दुनिया में वह आदमी प्यार का इन्तज़ार करता था

मैंने जंगल की आग जैसी उसकी दाढ़ी को छुआ
उसे थोड़ा सा क्या नहीं किया जा सकता था काला
आंखें कुछ कोमल कुछ तरल
तनी हुई एक हरी नस ज़रा सा हिली जैसे कहती हो
जीवन के जलते अनुभवों के बारे में क्या जानती हो तुम
हम वहां चल कर नहीं जा सकते
वहां आंखों को चौंधियाता हुआ यथार्थ है और अन्धेरी हवा है
जन्म लेते हैं सच आत्मा अपने कपड़े उतारती है
और हम गिरते हैं वहीं बेदम

ये आंखें कितनी अलग हैं
इनकी चमक भीतर तक उतरती हुई कहती है
प्यार मांगना मूर्खता है
वह सिर्फ किया जा सकता है
भूख और दुख सिर्फ सहने के लिए हैं
मुझे याद आईं विन्सेन्ट वान गॉग की तस्वीरें
विन्सेन्ट नीले या लाल रंग में विन्सेन्ट बुखार में
विन्सेन्ट बिना सिगार या सिगार के साथ
विन्सेन्ट दुखों के बीच या हरी लपटों वाली आंखों के साथ
या उसका समुद्र का चेहरा

मैंने देखा उसके सोने का कमरा
वहां दो दरवाज़े थे
एक से आता था जीवन
दूसरे से गुज़रता निकल जाता था
वे दोनों कुर्सियां अन्तत: खाली रहीं
एक काली मुस्कान उसकी तितलियों गेहूं के खेतों
तारों भरे आकाश फूलों और चिमनियों पर मंडराती थी
और एक भ्रम जैसी बेचैनी
जो पूरी हो जाती थी और बनी रहती थी
जिसमें कुछ जोड़ा या घटाया नहीं जा सकता था

एक शान्त पागलपन तारों की तरह चमकता रहा कुछ देर
विन्सेन्ट बोला मेरा रास्ता आसान नहीं था
मैं चाहता था उसे जो गहराई और कठिनाई है
जो सचमुच प्यार है अपनी पवित्रता में
इसलिए मैंने खुद को अकेला किया
मुझे यातना देते रहे मेरे अपने रंग
इन लकीरों में अन्याय छिपे हैं
यह सब एक कठिन शान्ति तक पहुंचना था
पनचक्कियां मेरी कमजोरी रहीं
ज़रूरी है कि हवा उन्हें चलाती रहे
मैं गिड़गिड़ाना नहीं चाहता
आलू खाने वालों और शराव पीने वालों के लिए भी नहीं
मैंने उन्हें जीवन की तरह चाहा है

अलविदा मैंने हाथ मिलाया उससे
कहो कुछ कुछ हमारे लिए करो
कटे होंठों में भी मुस्कराते विन्सेन्ट बोला
समय तब भी तारों की तरह बिखरा हुआ था
इस नरक में भी नृत्य करती रही मेरी आत्मा
फ़सल काटने वाली मशीन की तरह
मैं काटता रहा दुख की फ़सल
आत्मा भी एक रंग है
एक प्रकाश भूरा नीला
और दुख उसे फैलाता जाता है।



2 comments:

फ़िरदौस ख़ान said...

बेहतरीन कविताएं हैं...

rajesh singh kshatri said...

सच को मैने सच कहा, जब कह दिया तो कह दिया,
sach kahne se kaisa dar.
achchhi rachna hai