Wednesday, March 3, 2010

पूरी तरह हाशिये पर दलित महिलाएं





यह कोई मुंहजबानी तोहमत नहीं, संयुक्त राष्ट्र संघ की एक ऐसी रिपोर्ट की बानगी है, जिससे सिर शर्म से झुक जाए। हर दो वर्ष में तैयार होने वाली संयुक्त राष्ट्र की विश्व सामाजिक रिपोर्ट-2010 में कहा गया है कि भारत में दलित महिलाएं पूरी तरह से हाशिए पर धकेल दी गई हैं। स्थिति पर चिंता जताते हुए बताया गया है कि दलित महिलाएं दोहरी हिंसा का शिकार हो रही हैं। उनके साथ होने वाली ज्यादतियों में शारीरिक प्रताड़ना, यौन उत्पीड़न, बलात्कार, जबरन वेश्यावृत्ति, अपहरण, कन्याभ्रूण हत्या और घरेलू हिंसा शामिल हैं। भूमि स्वामित्व के मामले में निचले तबके के लोगों को बेदखल कर दिया जा रहा है। निचली जाति की महिलाएं इसलिए प्रभावित हो रही हैं क्योंकि उन्हें पहले से हाशिए पर मौजूद अपने समुदाय के भीतर भी कम अधिकार प्राप्त हैं। यही कारण है कि उनका खराब आर्थिक स्थिति से उबरना अपनी ही जाति के पुरुषों के मुकाबले मुश्किल हो रहा है।
रिपोर्ट में 1981 से 2005 के बीच की जनसंख्या के आधार पर विश्व की सामाजिक स्थिति का आकलन किया गया है। हाल ही में नई दिल्ली में जारी हुई इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में दलितों की सेहत की स्थिति काफी गंभीर है। दलितों से इतर अन्य जातियों की आबादी में 44 फीसदी बच्चे कम वजनी होते हैं, जबकि उचित खान पान नहीं मिलने के कारण दलितों के 54 फीसदी बच्चे कम वजन के होते हैं। अन्य जातियों में प्रति हजार शिशुओं में से 68 की मौत हो जाती है, जबकि इसके मुकाबले प्रति हजार दलितों में से 83 शिशु जन्म लेते ही दम तोड़ देते हैं। दलितों के हर एक हजार में 11 बच्चों की पांच वर्ष या उससे कम उम्र में ही मौत हो जाती है, जबकि शेष आबादी में यह आंकड़ा प्रति हजार 9 बच्चों का है। दलितों के लिए आरक्षण का समर्थन करने वाले संगठनों के लिए यह रिपोर्ट एक और मजबूत साक्ष्य है। दलित परिवारों के मुकाबले ऊंची जातियों के परिवारों में वस्तुओं के प्रति परिवार उपभोग में होने वाला व्यय 42 फीसदी ज्यादा है। अर्थशास्त्री और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की अर्थशास्त्र विभाग की प्रोफेसर जयंती घोष बताती हैं कि रिपोर्ट के निष्कर्ष वाकई चिंताजनक हैं और हम दलितों को रोजगार के अवसर मुहैया करा कर ही उनकी समस्याएं दूर कर सकते हैं। राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना नरेगा के जरिए एक शुरुआत जरूर हुई है। इसके तहत ग्रामीण क्षेत्रों में जिन लोगों को रोजगार के अवसर मिल रहे हैं, उनमें एक वर्ग दलितों का भी है। फिर भी हमें अब भी लंबी दूरी तय करनी है। वर्तमान में दलितों के लिए सरकारें जो कर रही हैं, वह महज सांकेतिक है। राष्ट्रीय उत्पादन और कथित सकल घरेलू उत्पाद में दलितों की भागीदारी चिंताजनक है। न्यायमूर्ति राजेंद्र सच्चर कमेटी के मुताबिक भारत के मुसलमानों की स्थिति बहुत दयनीय है। वे दलितों से भी पीछे हैं। रोजगार के अभाव में भूखे हैं। सवाल उठाए जा रहे हैं कि क्या इस रिपोर्ट के आईने में केंद्र दलितों की वास्तविक स्थिति जानने के लिए सच्चर या रंगनाथ मिश्र जैसा कोई आयोग बनाएगा? कांग्रेस को देश की संपदा में दलित हिस्सेदारी का कोई ठोस व्यवस्था करनी चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं किया जा रहा है। दलित अब भी दबंगों, पुलिस वालों शोषक पूंजीपतियों के निशाने पर हैं। विकास दर के आकड़े फर्जी हैं। करोड़ों दलित भुखमरी के शिकार हैं, विकास योजनाएं उन्हें रोजगार, दवा और बच्चों को स्कूल भेजने लायक मजदूरी नहीं देतीं। डा. अंबेडकर ने 1936 में सवाल उठाया था, क्या आप उस हालत में भी राजनैतिक सत्ता के योग्य हैं कि जब आप उन्हें अपनी पसंद का खाना भी नहीं खाने देते? आंध्रप्रदेश में तो दलित महिलाओं को उच्च जाति के लोगों के कुओं से जल की अनुमति तो मिली हुई है किंतु वे स्वयं उन कुओं से जल नहीं खींच सकती हैं। इसके लिए उन्हें उच्च जाति के लोगों पर निर्भर रहना पड़ता है और इसके लिए लम्बे समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। आजादी के साठ साल बाद भी देश की ज्यादातर दलित महिलाओं की दशा जानवरों से भी बदतर बनी हुई है।
सवाल ये उठता है कि आजादी के साठ साल बाद भी दलित महिलाओं के साथ ऐसा क्यों हो रहा है और इसके लिए जिम्मेदार कौन है? ये हालात तब हैं, जबकि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में दलित महिला मुख्यमंत्री हैं, लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार उसी समाज से आती हैं और देश की राष्ट्रपति महिला हैं तथा केंद्र में सत्तासीन कांग्रेस की बागडोर भी महिला सुप्रीमो के हाथ में है। साथ ही देश की संसद और विधानसभाओं में दलित नेताओं की भरमार है। दलित नौकरशाहों की भी अच्छी-खासी तादाद है। दरअसल जब तक दलित जन खुद एक निर्णायक लड़ाई के लिए उठ खड़े नहीं होते, कानून और कागजी योजनाओं से उनका विकास होने से रहा। दलित महिलाओं के साथ आज देश में क्या हो रहा है, इसकी चुगली करती हैं कुछ सनसनीखेज घटनाएं। मसलन, देश के विभिन्न राज्यों में किसी दलित युवती को घर से निकाल देना, उसके बाल काट देना, एक दलित महिला सरपंच का अफसर के हाथों पिटना और गांव से निकाल दिया जाना, अन्य दलित महिला को निर्वस्त्र कर गांव में घुमाया जाना। ये तो कुछ घटनाओं के उल्लेख मात्र हैं, ऐसा रोजाना ही देश में कहीं कहीं दलित महिलाओं के साथ हो रहा है।
सीकर (राजस्थान) में हाल ही में रघुनाथगढ़ क्षेत्र के गांव दौलतपुरा में एक शाम निर्वाचित पंचायत समिति सदस्य के जुलूस में शामिल लोगों ने एक घर में घुसकर मारपीट, आगजनी और महिलाओं से दुर्व्यवहार किया। उन्होंने दलित युवती सरोज को घसीट कर घर से बाहर निकाला और सिर के बाल काट दिए। परमेश्वरी देवी के पंचायत समिति सदस्य निर्वाचित होने के बाद जब गांव में जीत का जुलूस निकाला जा रहा था, इसी दौरान दौलतपुरा के भगवानाराम के घर के सामने से गुजरते समय पटाखे छोड़ने पर विवाद हो गया। जुलूस में शामिल लोगों में कुछ व्यक्ति भगवानाराम के घर में घुस गए। उस वक्त घर में उसकी बेटी सरोज, पुत्रवधू मंजू भागोती देवी मौजूद थी। आरोपियों ने घर में घुसकर मारपीट शुरू कर दी और घर में आग लगाने की कोशिश की। इस दौरान सरोज को घसीटकर बाहर ले आए और उसके बाल काट दिए। ऐसी ही एक घटना महाराष्ट्र के अमरावती क्षेत्र में हुई। अमरावती जिले में मंगरुल चवाला गांव की दलित महिला पारसंता को गांव से बेदखल कर दिया गया है। गांव की पंचायत ने फरमान सुनाया कि गांव का कोई शख्स उससे बात भी नहीं कर सकता। पारसांता की गलती इतनी भार है कि जिले के ब्लॉक एजुकेशन ऑफिसर ने उसकी जमकर पिटाई कर दी तो पारधी समाज के पंच मन्ना मगध पवार ने उसे जात ही नहीं, समाज से भी अलग कर दिया। गांव में पारधी समाज को पेय जल स्रोतों तक से दूर रखा जाता है। इस समाज के लिए एक कुंआ खोदा गया लेकिन उसमें पानी नहीं निकला। फिर गांव के स्कूल के सामने एक ट्यूबवेल लगाया गया। इसी ट्यूबवेल से पारधी समाज के लोग पानी भरा करते थे। एक दिन पारसंता जब ट्यूबवेल पर पानी भर रही थी, तभी ब्लॉक एजुकेशन ऑफिसर राम हारदे स्कूल का मुआयना करने आया। उसने जब पारसंता को पानी भरते देखा तो आगबबूला हो गया। उसने लात-घूंसों से पारसंता की पिटाई कर दी। जब इस बात की खबर पारसंता के पारधी समाज को मिली तो पंचायत बुलाई गई। पंचायत में बाकायदा इस बात पर लंबी बहस हुई। और फैसला पारसंता के समर्थन में आकर उसके खिलाफ आया। पंचायत ने कहा कि मारपीट के दौरान ऑफिसर लगातार इससे स्पर्श में आता रहा और पराए मर्द के साथ स्पर्श में आना पारधी समाज में बर्दाश्त के लायक नहीं। पारसंता ने पुलिस में मामला दर्ज कराया, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। एक ऐसा ही वाकया उत्तर प्रदेश के जिला बिजनौर में हुआ। नवंबर 09 में जिले जिले के धामपुर इलाके के करनावाला गांव के कुछ लोगों ने अपनी जमीन पर कब्जे का विरोध कर रही एक दलित गर्भवती नवविवाहिता को पीटने के बाद निर्वस्त्र कर पूरे गांव में घुमाया। गुनहगारों के खिलाफ उसे आज भी न्याय की दरकार बनी हुई है।


1 comment:

M VERMA said...

आजादी के साठ साल बाद भी देश की ज्यादातर दलित महिलाओं की दशा जानवरों से भी बदतर बनी हुई है।'
सच्चाई तो यही है.
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