धन्य हुईं हम
साल के ग्यारह महीने,
उनतीस दिन
मर्दों के
और एक दिन औरतों के नाम!
उफ्
मजाक की भी एक हद होती है,
इतना फूहड़ मजाक,
हमारी बिरादरी की अस्मिता के साथ,
हमारे अस्तित्व की
वास्तविकता के साथ,
हमारे होने-न-होने के साथ,
मर्दवादियों की
ये जुर्रत तो देखिए।
धन्य हुईं हम
हां, ये सब
उन्हीं का किया-धरा है,
उन्हीं का लीपा-पोता है,
अपनी-अपनी दहलीज के इन हिटलरों से
कोई पूछे तो सही,
कि आखिर माजरा क्या है,
महिला दिवस...उफ्।
धन्य हुईं हम
कभी कहते हैं आधी दुनिया
कभी कहते हैं अर्धांगिनी
कभी कहते हैं कुछ
कभी कहते हैं कुछ
जो जी में आए
करें, कहें।
फिलहाल इतना ही!
धन्य हुईं हम
(आज तो दुनिया भर के लोग महिला दिवस मना रहे हैं, तो औरतनामा में लिखने के लिए साल के 11 महीने 29 दिन अपने पास बच जाते हैं, उन्हीं दिनों में अपनी बात लिखें...क्यों पर्याप्त होगा)
Saturday, March 8, 2008
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
7 comments:
सीता जी आपने अच्छा लिखा है मैंने भी थोडी कलम चलाई है जरा इस पर भी नजर डाले
http://rajeshroshan.com/2008/03/08/women-from-eys-of-men/
सही और सच को बताती एक अच्छी रचना ..
सुन्दर रचना...विश्वमहिला दिवस पर हार्दिक बधाई.
वस्तुतः नारी को लेकर पुरुष दुविधा में हैं क्योंकि नारी के बगैर काम चल नहीं सकता और इसे बराबरी का दर्जा देना भी मुश्किल है। आज जरूरत है एक नए समाज की और इसकी रचना नारी ही करेंगी।
sita jee,
ek din tasveer jaroor badalegee aisaa meraa vishwaas hai. yahee ummeed thee aapse achha lagaa.
"अपनी-अपनी दहलीज के इन हिटलरों से
कोई पूछे तो सही,
कि आखिर माजरा क्या है,"
तसलीमा पर धर्माधिकारियों के जलवा-फ़रोशी को देख ये पंक्तियाँ जेहन में उभरी थी, आपकी कविता के संदर्भ में भी प्रासंगिक लगी ...
'खुदा का ठेकेदार मैं खुदा हूँ
सबसे ऊपर और जुदा हूँ,
तुम्हारी सांसे मैं तय करूंगा'.
chaliye aapne mana to liya .....
Post a Comment