इस समाज मे
शॊषण की बुनियाद पर टिके सम्बन्ध भी
प्रेम शब्द से अभिहित किये जाते है
एक स्त्री तैयार है मन-प्राण से
घर सभालने, खाना बनाने, कपडा धोने
और झाडू-बुहारी के लिये
मुस्तैद है पुरुष उसके भरण-पोषण मे
बिचौलियो के जरिये नही
एक-दूसरे को उन्होने खुद खोजा है
और इसे वे प्यार कहते है
और मुझे वेरा याद आती है
उसके सपने याद आते है
शरीर का अतिक्रमण करती विद्रोही स्त्री
उपन्यास के पन्नो से निकलकर
कभी कभी किसी शहर मे, किसी रास्ते पर दिखती है
विद्रोही पुरुष भी नजर आते है गुस्से से भरे हुए
राज्य के विरुद्ध, समाज के विरुद्ध
परम्परा और अन्याय के विरुद्ध
मित्रो, शक नही है इन पुरुषो की ईमानदारी पर
विद्रोह पर, क्रातिकारी चरित्र पर
किन्तु रोज़मर्रा की तकलीफो के आगे
वे अक्सर सामन्त ही सबित होते है
बहुत हुआ तो थोडा भावुक किस्म के, समझदार किस्म के
मगर सामन्त
फिर हम देखते है करुण और विषण्ण-
एक विद्रोही स्त्री का
समाज अपनी गुन्जलके कसता जाता है उसके गिर्द
जीवन के इन सारे रहस्यो के आगे
यह आधुनिक-पुरुष-प्रेमी लाचार हो जाता है
फिर भी अन्त तक वह विद्रोही रहता है
समाज को बदलने मे सन्लग्न
और एक विद्रोही स्त्री खत्म हो जाती है
उसके वि्द्रोह के निशान भी नही बचते
उसके चेहरे पर.
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1 comment:
अच्छी कविता !
सीता जी अपना ई मेल दीजियेगा sandoftheeye.blogspot.com
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