Sunday, May 25, 2008

रात के संतरी की कविता






रात को
ठीक ग्यारह बजकर तैंतालीस मिनट पर
दिल्ली में जीबी रोड पर
एक स्त्री
ग्राहक पटा रही है।

पलामू के एक कस्बे में
नीम उजाले में एक नीम हकीम
एक स्त्री पर गर्भपात की
हर तरकीब आजमा रहा है।

बाड़मेर में
एक शिशु के शव पर
विलाप कर रही है एक स्त्री।

मुंबई के एक रेस्त्रां में
नीली-गुलाबी रोशनी में थिरकती स्त्री ने
अपना आखिरी कपड़ा उतार दिया है
और किसी घर में
ऐसा करने से पहले
एक दूसरी स्त्री
लगन से रसोईघर में
काम समेट रही है।

महाराजगंज के ईंट-भट्टे में
झोंकी जा रही है एक रेजा मजदूरिन
जरूरी इस्तेमाल के बाद
और एक दूसरी स्त्री
चूल्हे में पत्ते झोंक रही है
बिलासपुर में कहीं।

ठीक उसी रात, उसी समय
नेल्सन मंडेला के देश में
विश्वसुंदरी प्रतियोगिता के लिए
मंच सज रहा है।

एक सुनसान सड़क पर एक युवा स्त्री से
एक युवा पुरुष कह रहा है
-मैं तुम्हें प्यार करता हूं।

इधर, कवि
रात के हल्के भोजन के बाद
सिगरेट के हल्के-हल्के कश लेते हुए
इस पूरी दुनिया की प्रतिनिध स्त्री को
आग्रह पूर्वक
कविता की दुनिया में आमंत्रित कर रहा है
सोचते हुए कि
इतने प्यार, इतने सम्मान की,
इतनी बराबरी की
आदी नहीं,
शायद इसलिए नहीं आ रही है।
झिझक रही है।
शरमा रही है।

4 comments:

राजीव रंजन प्रसाद said...

इतने प्यार, इतने सम्मान की,
इतनी बराबरी की
आदी नहीं,
शायद इसलिए नहीं आ रही है।
झिझक रही है।
शरमा रही है।

हर चित्र आपके शब्दों में सजीव हुआ है, हर भाव बखूबी स्थापित हुआ है। रचना सोच को एक दूसरा ही दृष्टिकोण देती है, अंत में...

***राजीव रंजन प्रसाद

सीता खान said...

राजीव रंजन जी
कविता कात्यायनी की है, उसमें एक भी शब्द मेरे नहीं।

सीता खान said...

राजीव रंजन जी
कविता कात्यायनी की है, उसमें एक भी शब्द मेरे नहीं।

neelima garg said...

very interesting..