Tuesday, February 17, 2009

दिल पर सोनजुही उग आई

इन छबियों में ये कैसी अंगड़ाई है.
लरज-लरज कर छलक रही अमराई है.
टूट-टूट कर धड़क रहे हैं दिल सबके
अपने दिल पर सोनजुही उग आई है.
पूरब से जब सुबह-सवेरे
सूरज आंखें खोले
हवा समुद्री पश्चिम से आ

डोले हौले-हौले
जैसे बासंती बुर्जों पर फिर सरसों अलसाई है.

पिहिक कमलिनी
कुहुक रागिनी छेड़ रही
चिहुक-चिहुक कर
तितली रंग उड़ेल रही
गेंदे की पंखुड़ियों पर क्यों भौंरा भरे जम्हाई है.

7 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर रचना है।बधाई स्वीकारें।

MANVINDER BHIMBER said...

पिहिक कमलिनी
कुहुक रागिनी छेड़ रही
चिहुक-चिहुक कर
तितली रंग उड़ेल रही
गेंदे की पंखुड़ियों पर क्यों भौंरा भरे जम्हाई है.

bahut sunder bhaaw hain

रंजू भाटिया said...

फागुनी बसंती बयार सी मनभावन रचना है .बहुत सुंदर

कुश said...

वाकई बहुत ही मनभावन रचना है..

Anonymous said...

behad khubsurat,sonjuhi si.

Manjit Thakur said...

बहुत बढिया रचना.. और इस फूल को सोनजूही कहते हैं.. ये भी जाना हमारी मैथिली में इसे गुलेंच कहा जाता है। और पकौड़े भी बनाए जाते हैं बेसन में तलके..। लेकिन वो सोनजूही सफेद होता है। इसकी खुशबू भी बेहतरीन होती है।

समयचक्र said...

मनभावन रचना है..