मध्य वर्ग से लेकर कामगार वर्गों तक की कामकाजी स्त्रियों का शारीरिक-मानसिक श्रम सबसे सस्ता है. "जाने कहाँ गए वो दिन….." गाते हुए. रोते-सिसकते हुए, पुराने समय के "रागात्मक प्यार" और सुखद माहौल को याद करते हुए अंतत: करुण क्रंदन कर उठते हैं. महिलाओं के लिए 40 कानून बने हैं. सती प्रथा, दहेज हत्या, भ्रूण हत्या, डायन हत्या, घरेलू हिंसा पर कानून बन चुके हैं. लम्बे से समय से आधी आबादी ने अपने अधिकार के लिए, अपनी स्वतंत्रता के लिए जो आंदोलन घर के बाहर छेड़े, वह घर के अंदर नही छेड़ पाई है. अधिकार और स्वतंत्रता का जो दायरा कल था, वही आज भी है. भले वह ग्राम पंचायतों से संसद तक पहुंच गई हो, अपने परिवारों में वह आज वही होती है. सिर्फ शब्द बदल गये. आधी आबादी को नयी तकनीक के साथ जोड़ दिया गया लेकिन उसका मानसिक और शरीरिक शोषण उसी रफ्तार से चल रहा है. देश के अंदर स्त्री अधिकार के लिए बने कानून के साये में महिलाओं की भूमिका आज भी बुनियादी तौर पर कतई नहीं बदली है.
भारत में यौन शुचिता और चरित्र समानार्थी हैं. उपभोक्तावाद अब भारतीय परिवारों के सामंती दरवाजों पर ठोकर मार रहा है. मूल्य दरक रहे हैं और अजीबो-गरीब लगने वाली घटनाएं घट रही हैं. 'सच्चरित्र` हत्यारिन मां या 'दुश्चरित्र` मटुकनाथों की अपवाद लगने वाली घटनाएं इस विध्वंस के आरंभिक संकेत हैं.
ब्यूटी पार्लर, जिम से लेकर बाबा रामदेव जैसों के धंधे इसी कारण फल-फूल रहे हैं. विज्ञापनी दुनिया उन्हें लगातार बताती रहती है कि स्वस्थ शरीर में मंहगे वस्त्राभूषण फबते हैं. यौन शुचिता संबंधी दुराग्रहों की समाप्ति की राह भी आने वाले समय में यहां से निकलेगी. अभिजात तबके में उपभोक्तावाद का असर कुछ अलग तरह का है. वहां इसने अभिभावक-संतान के संबंधों को मित्रतापूर्ण बनाया है. कौमार्य के बंधनों को ढीला किया है.
1 comment:
बहुत ही अच्छा विचार और अच्छा आलेख है।
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