Wednesday, February 27, 2008

सीमोन के सवालों में स्त्री: दो


यह सही है कि औरत पुरुष की भांति एक मानव जाति है, किंतु यह कथन अमूर्त है. सत्य तो यह है कि प्रत्येक ठोस मानव हमेशा एकल औऱ अभिन्न व्यक्ति होता है. कुछ साल पहले की बात है, एक लेखिका ने अपनी तस्वीर अन्य लेखिकाओं के साथ खिंचवाने से यह कहकर इंकार कर दिया कि वह अपनी गणना पुरुषों में करवाना चाहती हैं, लेकिन इस विशिष्टता को हासिल करने के लिए उन्हें अपने पति का सहारा लेना पड़ा. यदि प्रजनन की प्रक्रिया से औरत को परिभाषित नहीं किया जा सकता औ यदि हम शाश्वत नारी की अवधारणा के माध्यम से उसको व्याख्यायित नहीं करना चाहते, तब हमें इस प्रश्न का सामना तो करना ही पड़ेगा कि औरत क्या है? इस प्रश्न का एक प्रारम्भिक उत्तर तो हमारे सामने ही है. अपने आप में यह प्रश्न एक महत्वपूर्ण तथ्य है. एक पुरुष अपने आप को अपने से कम के संदर्भ में परिभाषित नहीं करता. वह अपने आपको शुरु से ही संपूर्ण व्यक्ति मान कर चलता है. जब हम मानव या व्यक्ति शब्द का उच्चारण करते हैं तो उसमें पुरुष और स्त्री, दोनों समाहित होते हैं. आदमी होना स्वयं एक विधेयक प्रक्रिया है. यह पारस्परिकता लिए हुए है, जबकि औरत होना केवल एक निषेध का प्रतिनिधित्व करता है. बिना किसी पारस्परिकता के यह एक सीमित संवर्ग द्वारा परिभाषित होता है.
साभी विचार-विमर्श के बीच यह सुनकर तो और भी ऊब होती है कि तुम ऐसा इसलिए सोचती हो, क्योंकि तुम एक औरत हो. लेकिन जो सच है, एक औरत वही सोच सकती है. पुरुष होना कोई विलक्षणता नहीं. पुरुष संपूर्ण मानवीय प्रकार है और उसी के संदर्भ में कुछ अन्य विलक्षणताओं को लिए हुए एक औरत अपने गर्भाशय के साथ है. एक औरत को उसकी विलक्षणताएं उसकी स्थिति में कैद कर देती हैं और उसकी अपनी प्रकृति की सीमा को अतिवादी ढंग से सीमाबद्ध कर देती हैं. हमेशा यह कहा जाता है कि स्त्री अपनी ग्रंथियों के सहयोग से सोचती है. पुरुष इस बात को बिल्कुल भूल जाता है कि उसकी शरीर-रचना में भी ग्रंथियां हैं. वह अपने शरीर को जगत् से सीधे संबंधित करता है और यह विश्वास करता है कि वह जगत को वस्तुपरक रूप से समझता है, जबकि वह औरत के शरीर को अजीबोगरीब सीमाबद्धताओं के कारण बोझिल पाता है.
अरस्तू ने औरत की परिभाषा यह कहकर दी कि औरत कुछ गुणवत्ताओं की कमियों के कारण ही औरत बनी है. हमें स्त्री के स्वभाव से यह समझना चाहिए कि प्राकृतिक रूप में उसमें कुछ कमियां हैं. वह एक प्रासंगिक जीव है. वह आदम की एक हड्डी से निर्मित है. इसलिए मानवता का स्वरूप पुरुष है और पुरुष औरत को औरत के लिए परिभाषित नहीं करता, बल्कि पुरुष से संबंधित ही परिभाषित करता है. वह औरत को स्वायत्त व्यक्ति नहीं मानता. कहा तो यहां तक भी जाता है कि औरत अपने बारे में नहीं सोच सकती और वैसी ही बन सकती है, जैसा बनने के लिए पुरुष उसे आदेश देगा. इसका अर्थ यह है कि वह असल में पुरुष के लिए भोग की वस्तु है और इसके अलावा कुछ भी नहीं. वह पुरुष के संदर्भ में ही परिभाषित और विभेदित की जाती है. वह आनुषंगिक है, अनिवार्य के बदले नैमित्त है, गौण है. पुरुष आत्म है, विषयी है. वह पूर्ण है, जबकि औरत बस अन्या है.
मौलिक रूप से सभी समूह स्वतंत्र थे. यह तो इतिहास की एक घटना है कि शक्तिशाली समूह ने कमजोर समूह को अधीनस्थ कर लिया. ऐसे समूह का अपना एक सामान्य अतीत, एक परंपरा और कभी-कभी संस्कृति तथा धर्म रहा है. अत: औरत और सर्वहारा के बीच दो समानांतर रेखाएं खींची जा सकती हैं. यह विभाजन सही हो सकता था, लेकिन औरत ने, सर्वहारा ने मानवता से अलग अपनी सामूहिक इकाई समझी और कभी अपने आपको अल्पसंख्यक के रूप में स्वयं बनाया. महत्वपूर्ण बात यह है कि सर्वहारा हमेशा से नहीं था, जबकि औरत हमेशा से रही है. औरत अपनी शरीर-संरचना और स्थितियों के कारण औरत है. इतिहास में हमेशा से औरत पुरुष के अधीनस्थ रही है. यदि औरत की स्थिति प्राकृतिक मान ली जाये, तो यह बदलाव की संभावना से परे हो जाती है. औरत अपने आपको एक ऐसी अनावश्यक वस्तु मानती है, जो कभी अनिवार्य नहीं हो सकती. इसीलिए औरत स्वयं इस परिवर्तन को लाने में असमर्थ रही है. सर्वहारा अपने वर्ग को हमलोग कहकर संबोधित करता है. अपने आप को इस प्रकार हम के रूप में संबोधित करते ही ये लोग विषयिता हो जाते हैं. लेकिन औरत अपने आपको हमलोग कहकर संबोधत नहीं करती. हां, यह अलग बात है कि कुछ नारीवादी स्त्रियां मंचीय प्रदर्शन के लिए अपने आपको स्त्री वर्ग से जोड़ती हैं. औरत कभी प्रामाणिक रूप से अपने प्रति वैयक्तिक दृष्टिकोण नहीं स्वीकारती. सर्वहारा ने रूस में क्रांति हासिल की. अफ्रीका की काली जाती आज भी अपनी स्वतंत्रता के लिए युद्ध कर रही है, किंतु औरत का विद्रोह आज भी महज एक प्रतीकात्मक आंदोलन और उपद्रव बनकर ही रह गया है. इन तमाम हलचलों और आलोचनाओं से कुछ हासिल नहीं हुआ. स्त्रीयों को तो वही मिला जो पुरुष ने अपनी इच्छा से उसे दे दिया. इस स्थिति में पुरुष दाता और औरत ग्रहिता के रूप में सामने आयी है. इसका प्रमुख कारण औरतों के पास अपने आपको एक इकाई के रूप में संगठित करने के ठोस साधनों का अभाव है. उनका न कोई अतीत है और न इतिहास, न अपना कोई धर्म है और न ही सर्वहारा की तरह ठोस क्रिया-कलापों का एक संगठित जगत्. स्त्रीयों के बीच सामूहिकता की भावना का अभाव है. ऐसी कोई जगह नहीं जहां वह झुंड बनाकर रहती हों यानी एक बड़े दल में अवस्थित हों. समूह के बदले औरत अकेली और पुरुषों के बीत बिखरी हुई है. वह पुरुष के घर में उसकी गृहस्थी में काम करती है. वह पुरुष की दी हुई आर्थिक सुविधाओं को भोगती हुई उसी के सामाजिक स्तर से अपना तादात्म्य स्थापित करती है. पुरुष उसके आसपास कभी पिता, कभी भाई, कभी पति तो कभी पुत्र के रूप में रहता है. बुर्जुवा वर्ग की औरत की समस्वरता अपने ही वर्ग के पुरुषों के साथ है. वह सर्वहारा स्त्रीयों के साथ एक प्राण नहीं हो सकती. औरत पुरुष और उसके पुरुषत्व को खत्म करने की कल्पना भी नहीं कर सकती.
यदि कानून औरत को बराबरी का आधार दे भी दे तो सामाजिक, नैतिकता और लोकव्यवहार उसके आड़े जाते हैं. दूसरी बातों के समान रहने पर भी आर्थिक क्षेत्र में औरत और मर्द बिल्कुल अलग अलग जाति के रूप में प्रस्तुत होते हैं. पुरुष को अच्छी नौकरी, बेहतर तनख्वाह और सफलता की ज्यादा सुविधाएं मिलती हैं, उद्योग, व्यवस्था और राजनीति में पुरुषों को ज्यादा ओहदे मिलते हैं और महत्वपूर्ण पदों पर उनका एकाधिकार भी रहता है. इन सबके अलावा हम देखते हैं पुरुष को शिक्षा के क्षेत्र में भी एक पारंपरिक सम्मान मिला हुआ है.
इसमें कोई संदेह नहीं की जो विजेता है, वह पूर्णता की स्थिति पायेगा, लेकिन ऐसा क्या था जिसके कारण पुरुष ही प्रारंभ से विजेता बना? यह भी तो संभव था कि औरत की जीत होती या फिर इस संघर्ष का इस प्रकार निदान नहीं होता. औरत को लेकर उठाया गया कोई भी प्रश्न नया नहीं है और बहुतों के उत्तर युगों से दिये जा रहे हैं, लेकिन औरत अन्या है, इसलिए पुरुष द्वारा दिये गये तमाम उत्तरों और तर्कों पर संदेह होना स्वाभाविक है. ये सारे उत्तर पुरुष अपने स्वार्थों के लिए देता है. बहुत पहले ही एक नारीवादी ने कहा था, "अब तक औरत के बारे में पुरुष ने जो कुछ भी लिखा है, उस पूरे पर शक किया जाना चाहिए, क्योंकि लिखनेवाला न्यायाधीश और अपराधी दोनों ही है."
सीमोन के सवाल............................................(जवाब चाहिए)
1. एक बार फिर यह प्रश्न उठता है कि स्त्री-पुरुष के मध्य का यह भेदभाव आखिर कैसे शुरु हुआ?
2. आखिर क्यों यह दुनिया अब तक पुरुष की ही रही है? क्या यह बदलाव अच्छा है? औरत के हित में है? इसके कारण औरत और मर्द में जागतिकविषयों में बराबरी का साझा होना संभव हो सकेगा?
3. क्या औरत अपनी शारीरिक-संरचना और स्थितियों की वजह से औरत है या वहज कुछ और है?
4. क्या औरत की स्थिति प्राकृतिक है और यहां बदलाव की कोई संभावना नहीं है?
5. यदि कानून औरत को बराबरी का आधार दे भी दे, तो क्यों सामाजिकता, नैतिकता और लोकव्यवहार उसके आड़े आ जाते हैं?

5 comments:

Unknown said...

Dear one, No man or a woman can really attempt an honest answer --- as either of them is also a party to the whole issue..

The little hope ...if at all can be from a philosopher .... who is neither. Or Beyond..
with your great permission, will attempt in near future.
do visit sometime --- http:\\thephilosophicalpoint.blogspot.com
regards

अजय कुमार झा said...

sirf itna hee kehnaa chaahtaa hoon ki aapke prashn sirf prashn nahin hain naari man aur naaree jeevan ko samajhane kee daastaan hai . koshish kar rahaa hoon ki uttar mil sake , kuchh milaa to jaroor kahoongaa.

अबरार अहमद said...

bahut khub, likhte rahiye.

Das Übermench said...

Copycat, why dont you write something of your own

अजय कुमार झा said...

aake kuch prashno ke uttar kisi ne apne aaj kee post kyon paidaa hotee hain betiyaa. blog kaa naam www.jholtanma.blogspot.com
mein dene kee koshish kee hai.