अरे यह तो मैं भी सोचती थी
मेरे भी मन में आयी थी ऐसी बात बार-बार कई बार
जब भी मैं ऐसा सोचती हूं
लगता है कहीं खलबली मच जाती है दूसरी ओर
....तो क्या यही है हमारी नियति
या उन सबकी ?
क्या पूरी दुनिया में औरत का चेहरा एक-सा है
उसे आधी दुनिया... गुलाम दुनिया ... हाशिये की हस्ती
या कोई और सिम्बल दिया जाना चाहिए
सोचो कि सीमोन क्यों सोचती थी इस तरह
कि स्त्री पैदा नहीं होती, बल्की उसे बना दिया जाता है
वह गांव में नाना के घर जाती थी छुट्टियां बीताने
खोई रहती थी किताबों में और अपने कल्पनालोक में
कितनी जिद्दी थी वह, अपने लिए नहीं
पूरी स्त्री जात के लिए
वह लेखक बनना चाहती थी
कहती थी मैं नहीं करूंगी किसी की प्रार्थना
मुझे यूशु पर भी विश्वास नहीं
डांटती थी बार-बार उसकी मां कि तू नास्तिक है
तू शादी नहीं करेगी
आवारा लड़कों के साथ घूमती रहती है तू
तू जितनी जिद्दी है उतनी ही तेज
तेरा पिता दिवालिया हो चुका है
तू नौकरी नहीं करेगी
क्यों ?
सीमोन आवारागर्द नहीं थी
औरत जात के दर्द की मारी हुई थी
सात्र था उसका सबसे शानदार दोस्त
उसी की तरह मेधावी और दुनियादारी की जड़ों से बाखबर।
ज्यां पाल की दोस्ती, सपनों के साथी हो चले दोनों
तभी सोचा उस जिद्दी लड़की ने
औरत और जानवर में क्या फर्क होता है,
सात्र चाहे जितना तड़पता रहे
उसकी राह अलग है
उसकी राह उस औरत की राह है
जिसे लांघने हैं अभी कई पहाड़
अपने विचारों में झरनों-सी झरती हुई,
पारंपरिक त्रासदि और पीड़ाओं में बहती हुई।
जिद्दी थी युद्ध से ज्यादा,
गुस्सैल इतनी कि कितनी भी कड़ी डांट फटकार पड़े
गूंगे की तरह चुप हो जाती थी
पढ़ना-लिखना, कहवा घरों में घंटों दोस्तों के साथ
विचारों कि गर्म-गर्म रेत पर टहलना
अंधरों की मस्ती में उड़ना
शौक था उस जिद्दी लड़की का
कहती थी वह
कोई स्त्री मुक्त नहीं
स्त्री होना गुनाह है
जैसे कहता था तुलसी
शूद्र-गंवार-ढोल-पशु-नारी-कुलच्छिन-कुल्टा
....और नहीं तो क्या
त्रियाचरित्रं ?
सीमोन ने कितनी तरह से सोचा था स्त्री को,
कितनी तरह से चाहा था स्त्री को
यह सोचना और चाहना
शायद
उसकी सबसे बड़ी ज़िद थी।
Wednesday, February 20, 2008
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2 comments:
सीता जी बहुत सुंदर कहा आपने....
aisa to humne bhi socha tha...
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