Friday, February 22, 2008

इससे क्या फर्क पड़ता है तुम्हे


मैं औरत हूं
इसलिए हूं,
इससे क्या फर्क पड़ता है तुम्हे
कि हम हैं या नहीं भी हैं।

हम औरतें उठाती हैं सवाल
तुम करते हो ज्यादतियां और बहसें एक साथ
और हम होती हैं हैरान
या हलाल बार-बार
इससे क्या फर्क पड़ता है तुम्हें
कि हम हैं या नहीं भी हैं।

तुम रचते हो नर्क
हमारे लिए, अपने स्वर्ग के लिए,
करते हो तर्पण हमारी अस्मिता और अस्तित्व के,
बेंचते हो ऐश्वर्य और अनुभूतियां,
खरीदते रहते हो हमें
इससे क्या फर्क पड़ता है तुम्हे।

तुमने बना रखे हैं हमारे लिए
तहखानों के भीतर कई-कई तहखाने,
बुन रखी हैं कई-कई परतें,
जला रखे हैं ऊंची-ऊंची लपटों वाले अलाव,
जिसमें स्वाहा होता रहता है
हमारा सर्वस्व
इससे क्या फर्क पड़ता है तुम्हे।

...लेकिन नहीं,
अब और नहीं, इससे ज्यादा नहीं,
क्योंकि मालूम हो गई हैं हमें
तुम्हारी मर्दानगियों की हिकमतें,
पढ़ ली हैं हमनें
तुम्हारी इतनी सारी किस्से-कहानियों,
अब और कुछ
जानने-सुनने के लिए
बचा भी क्या है,
बची रह गई हैं हम और हमारी कोशिशें,
रंग लाएंगी
कभी-न-कभी, आज नहीं, तो कल
जरूर रंग लाएंगी
हमारी कोशिशों, तुम्हारी कोशिशों के समानांतर
या तुम्हारी कोशिशों के खिलाफ
गूंजेंगी हम समवेत,
जोर-जोर-से।

4 comments:

नीरज गोस्वामी said...

बची रह गई हैं हम और हमारी कोशिशें,
रंग लाएंगी
कभी-न-कभी, आज नहीं, तो कल
जरूर रंग लाएंगी
सीता जी
बहुत खूब...ये ज़ज्बा और तेवर यदि सब में आ जाए तो आप की कोशिश सार्थक हो जायेगी.....बहुत अच्छे शब्द और भाव...बधाई.
नीरज

Mohinder56 said...

फ़र्क कैसे नहीं पडता...
एक दिन औरत घर के काम काल से छुट्टी कर ले.. फ़र्क अपने आप पता चल जायेगा.

जहां तक सवाल की बात है... वह औरतों का हक और आदत दोनों है... अब मर्दों के पास जबाब न हो तो क्या करें :)

स्वर्ग और नरक रचने वाले.. बाप, भाई, रिश्तेदार या दोस्त ही तो हैं... शिकवा किससे और क्यों

दिल्ली की बोलें तो... राष्ट्र पति महिला... चीफ़ मिन्टर महिला....

यह कविता का कटाक्ष नहीं सिर्फ़ मर्दों का बचाव भर है :)

अजय कुमार झा said...

sita jee,
sasneh abhivaadan. aapne to apne naam ke anuroop hee naaree jagat ke saare manobhaav aur poore jiwan chitra ko samne rakh diyaa hai . magar meri shikaayat yahee rehtee hai ki aap log hameshaa hee saaraa dosh sirf purush samaaj par kyon madh dete hain. kya naaree jagar kee ismein koi bhee bhumika nahin hai . vishay bahas ke layak hai .

अबरार अहमद said...

बहुत सारा दर्द है आपके सीने में। खैर उसे आपने निकाला अच्छा है। लेकिन आपकी कविता दुनिया का एक पहलू दिखाती है। भरोसा कीजिए दुनिया अच्छे लोगों से खाली नहीं हुई। बहरहाल बहुत उम्दा लेखन है आपका।