Thursday, February 25, 2010
महिला आरक्षण विधेयक को कैबिनेट की हरी झंडी
(www.sansadji.com सांसदजी डॉट कॉम से साभार) यह विधेयक राजनीतिक आम सहमति नहीं हो पाने की वजह से एक दशक से अधिक समय से लटका हुआ था। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल की एक बैठक में विधेयक को मंजूरी दी गयी। यह राज्य सभा में पहले ही रखा जा चुका है और कानून व्यवस्था एवं कार्मिक मामलों की संसदीय स्थायी समिति को भेजा जा चुका है। सूत्रों ने कहा कि विधेयक सदन की संपत्ति है, इसलिए कार्य मंत्रणा समिति इस बात पर फैसला करेगी कि अगला कदम कब उठाया जाए। समाजवादी पार्टी और राजद सरीखे कुछ दल महिलाओं के लिए आरक्षण में पिछड़े वर्ग की महिलाओं की आरक्षण की मांग रहे हैं।
पंद्रहवीं लोकसभा के पहले सत्र मे 4 जून 2009 को राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में घोषणा की थी कि सरकार विधानसभाओं और संसद में महिला आरक्षण विधेयक को शीघ्र पारित कराने की दिशा में सौ दिन के भीतर कदम उठायेगी। राष्ट्रपति के अनुसार महिलाओ को वर्ग, जाति और महिला होने के कारण अनेक अवसरों से वंचित रहना पड़ता है. इसलिए पन्चायतों और शहरी स्थानीय निकाय में आरक्षण बढ़ाकर महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए अगले 100 दिन में संवैधानिक संशोधन करने के क़दम उठाए जाएँगे ताकि अधिक से अधिक महिलाएँ सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश कर सकें. सरकार अगले 100 दिनों में केंद्र सरकार की नौकरियों में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने की कोशिश करेगी. इसके साथ-साथ बेहतर समन्वय के लिए महिला सशक्तिकरण पर एक राष्ट्रीय मिशन स्थापित करने का क़दम उठाया जाएगा। 15वीं लोकसभा ने कई मायनों मे इतिहास रचा है। नारी सशक्तीकरण अब राजनीतिक गलियारों का मुद्दा नही, बल्कि 15वीं लोकसभा की हकीकत है। यह पहला मौका है, जब संसद में प्रवेश करने वाली महिलाओं की संख्या 50 से अधिक है। यही नहीं सबसे बड़ी बात यह है कि भारत के इतिहास में पहली बार एक महिला को लोकसभा अध्यक्ष बनने का मौका मिला है। संसद में महिला आरक्षण का प्रश्न आज प्रत्येक व्यक्ति की चर्चाका विषय है। संसद और विधान मंडलों में महिलाओं को भी 33 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने के उद्देश्य से 14वीं लोकसभा में 108वें संविधान संशोधन विधेयक ने देश के जनमत को फिर चैतन्य कर दिया था। महिलाओं को राजनीतिक सशक्तीकरण और लैंगिक असमानता दूर करने के उद्देश्य से राज्यसभा में रखा गया विधेयक इस रास्ते का पहला प्रयास नहीं था। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने प्रधानमंत्रित्वक काल में भी इस मोर्चे पर चिंतन हुआ था। पंचायती राज संस्थाओं और स्थानीय निकायों को संविधान में स्थान देने की योजना बनाते समय संसद और विधान मंडलों के लिए भी ऐसे ही कदम की रूपरेखा बनी थी। बाद में प्रयास फलीभूत नहीं हुआ। देश मे आधी आबादी (महिलाएं) पिछले एक दशक से अपना प्रतिनिधित्व बढाने की मांग कर रही हैं लेकिन पुरूष प्रधान राजनीति संसद में महिला आरक्षण विधेयक पारित नहीं होने दे रही। यह अप्रत्याशित और सुखद है कि पन्द्रहवीं लोकसभा में उपेक्षित महिला वर्ग का प्रतिनिधित्व बढा है। यह पहला मौका है जब 58 महिलाएं लोकसभा में पहुंची हैं, जो अब तक का सर्वाधिक आंकडा है। इस बार कुल 556 ने चुनाव लडा था। उत्तर प्रदेश से सबसे ज्यादा 12, पश्चिम बंगाल से 7 और राजस्थान से 3 महिला सांसद चुनी गई हैं। 14वीं लोकसभा में देशभर में 355 महिला उम्मीदवार चुनावी रणक्षेत्र में कूदी थी। इनमें से महज 45 लोकसभा में पहुंच पाई, जो 543 सदस्यीय सदन का 10 फीसदी भी नहीं है। नई लोकसभा में पिछली की तुलना में 13 महिलाएं ज्यादा है । दस साल पहले महिलाओं को विधानसभा और संसद में 33 फीसदी आरक्षण देने का शिगूफा छोडा गया। यह घोर विडंबना है कि महिला आरक्षण का ज्वलंत मुद्दा पिछले करीब एक दशक में किसी न किसी तरीके से लम्बित होता रहा है। राजनीतिक दल भी गाहे-ब-गाहे, महिला आरक्षण का राग अलापते रहे हैं। लगभग सभी पार्टियों के चुनावी घोषणा-पत्र में महिला आरक्षण पर अमल का वादा किया जाता है। प्रधानमंत्री रहते एच.डी. देवेगौडा और अटल बिहारी वाजपेयी ने महिला आरक्षण बिल पेश किया। पास कराने की कोशिश भी हुई, लेकिन सफलता नहीं मिली। सरकारें आती जाती रहीं, प्रधानमंत्री बदलते रहे। यह विधेयक 1996 से अब तक कई बार लोकसभा में पेश हो चुका है, लेकिन आम सहमति के अभाव में यह पारित नहीं हो सका। 12वीं और 13वीं लोकसभा में दो बार बिल को राजग शासनकाल में प्रस्तुत किया गया। यूपीए सरकार के कार्यकाल में महिला आरक्षण विधेयक आगे नहीं बढा। आम सहमति न बन पाने को कारण बताकर महिला विधेयक को एक प्रकार से ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया। आज भी महिलाओं को संसद और विधानसभा में उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हैं। अन्तर संसदीय संघ (इंटर पार्लियामेंटरी यूनियन) के अनुसार विश्वभर की संसदों में सिर्फ 17.5 प्रतिशत महिलाएं हैं। ग्यारह देशों की संसदों में तो एक भी महिला नहीं है और 60 देशों में दस प्रतिशत से कम प्रतिनिधित्व है। अमरीका और यूरोप में बीस प्रतिशत प्रतिनिधित्व है, जबकि अफ्रीका एवं एशियाई देशों में 16 से 10 प्रतिशत। अरब देशों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सिर्फ़ 9.6 प्रतिशत है। महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने के मामले में 183 देशों में रवांडा पहले नम्बर पर है। वहां संसद में 48.8 फीसदी महिलाएं हैं। संसद में महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने के मामले में भारत दुनिया में 134वें स्थान पर है। अधिकांश पुरूष सांसद महिला सशक्तिकरण की बात जरूर करते हैं, पर समाज की "आधी आबादी" के लिए त्याग करने के लिए तैयार नहीं हैं। इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों की कथनी और करनी में अंतर दिखता है। आरक्षण न सही राजनीतिक दल महिलाओं को ज्यादा से ज्यादा टिकट देने लगें तो भी महिलाओं की संख्या संसद में बढेगी। पन्द्रहवीं लोकसभा इसका उदाहरण है। भारत में महिलाओं को सम्मान और समानता की विचारधारा उतनी ही सशक्त रही है जितनी कि इनके साथ असमानता की। समय बीतने के साथ पुरुष प्रधान समाज ने ना मालूम कैसे रवैये में परिवर्तन कर लिया और नारी भी इसकी आदी हो गई। सती सावित्री, अहिल्या देवी, महारानी लक्ष्मीबाई, रानी दुर्गावती, अदिति पंत, बछेंद्री पाल, किरण बेदी, कल्पना चावला भारतीय महिलाओं के रोल मॉडल हैं। वह कौन-सा कार्य है, जो 'प्रस्तावित 33 फीसदी वर्ग' ने नहीं कर दिखाया है। पंचायती राज और स्थानीय निकाय संबंधी 73वें और 74वें संविधान संशोधन विधेयक के अधिनियमित होने के बाद तो महिलाओं की आवाज इस मुद्दे पर और सशक्त हो चली है। धरातली संस्थानो में तो महिलाओं के लिए आरक्षण है, किंतु इनके लिए कानून बनाने वाले संस्थानों में नहीं। महिला आरक्षण के लिए तर्क कम वजनदार नहीं हैं। महिलाएँ, त्याग, समर्पण, संसाधनों के पुनर्चक्रण (रिसाइक्लिंग) के बेजोड़ उदाहरण सामने रखती हैं। संसाधनों का इस्तेमाल पुरुषों की तुलना मे महिलाएँ अधिक बेहतर ढंग से करती हैं। पंचायती राज संस्थानों में 'मैडम सरपंच' के लिए स्थान बनाते समय इन्हीं बिंदुओं पर गंभीरता से विचार हुआ था। अब संवैधानिक संस्थानों के लिए भी ऐसी व्यवस्था जोरदार ढंग से अनुभव हो रही है। समाज की तरह राजनीति में भी पुरुष वर्चस्व है और वर्चस्व के इस दंभ ने स्त्रियों को बढ़ने नहीं दिया। महिला अपने बल पर कहीं पर खड़ी हो, यह उसे बरदाश्त नहीं होता। महिलाओं के उत्थान के लिए यह विधेयक आवश्यक है। लेकिन इसमें भी संशय है कि यह सिर्फ आम बिल बनकर रह जाएगया महिलाओं को हक दिलाने में कारगर भी होगा। इस बिल के पेश होने के बाद उम्मीद है कि महिलाएं अब आत्मविश्वास के साथ अपने हक की मांग करें। अपने अधिकारों को कानूनी रूप से प्राप्त करने के लिए वे स्वयं आगे आएं। कितने आश्चर्य की बात है कि इतने चुनावों के बाद भी महिलाओं की सत्ता में भागीदारी नगण्य है।
संप्रग के समर्थन में राजग प्रमुख भाजपा अपना समर्थन लिए खड़ी है। वामदल भी आरक्षण विधेयक के समर्थक हैं। राजद, द्रमुक, पीएमके दलित, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए भी आरक्षण चाहता है। सपा भी कोटे में कोटे की पक्षधर है। इस विधेयक के रास्ते में कई तकनीकी परेशानियाँ हैं क्योंकि यह संविधान में संशोधन करने वाला विधेयक है. ग्यारहवीं लोकसभा में पहली बार विधेयक पेश हुआ था तो उस समय उसकी प्रतियां फाड़ी गई थीं. इसके बाद 13वीं लोकसभा में भी तीन बार विधेयक पेश करने का प्रयास हुआ, लेकिन हर बार हंगामे और विरोध के कारण ये पेश नहीं हो सका था. महिला आरक्षण विधेयक एक संविधान संशोधन विधेयक है और इसलिए इसे दो तिहाई बहुमत से पारित किया जाना ज़रूरी है.
महिला मतदाता और महिला प्रत्याशी के साथ एक और बात की चर्चा होती है, वह है राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों में महिलाएं। अर्थात पार्टियां महिलाओं के जीवन में कितनी खुशहाली लाने का वादा करती हैं। यह भी सच है कि महिलाएं घोषणाएं पढकर मतदान नहीं करतीं। बहुत कम महिला मतदाताओं को चुनावी घोषणा का अर्थ पता है। दरअसल किसी भी पार्टी का घोषणा पत्र उसका ऎसा दस्तावेज होना चाहिए जो समाज के हर क्षेत्र के बारे में पार्टी का दर्शन, दृष्टि और कार्यक्रम प्रस्तुत करे। घोषणा पत्र से मनसा, वाचा, कर्मणा उसका संकल्प प्रकट हो, पर ऎसा होता कहां है। अधिकांश राजनीतिक दल स्वयं अपने घोषणापत्रों के बारे में विशेष चिंतित नहीं रहते। उन्हें भी मालूम है कि घोषणा पत्र के आधार पर उन्हें वोट नहीं मिलने वाले हैं। जहां तक इन चुनावी घोषणा पत्रों में महिलाओं के लिए की गई घोषणाओं का सवाल है- प्रमुख पार्टी (सत्ताधारी) कांग्रेस के घोषणा पत्र (2009) में सारे के सारे बिन्दु वही रहे जो वर्ष 2004 के घोषणा पत्र में थे। जैसे लोकसभा और विधानसभाओं में आरक्षण पहली घोषणा है। उसमें साफ लिखा था, "अगला लोकसभा चुनाव महिलाओं के 33 प्रतिशत आरक्षण मिलने के आधार पर ही करवाया जाएगा।" 2009 के चुनावी घोषणा में लिखा था- "लोकसभा और विधानसभा में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करने के लिए संविधान में संशोधन की कोशिश की जाएगी।" दोनों संकल्पों में विषय एक है, आस्था बदली हुई। 2004 के लोकसभा चुनाव में संकल्प था। पांच वर्षों में संकल्प पूरा करने के लिए प्रयास भी नहीं हुआ। 2009 के घोषणा पत्र में "कोशिश करने" की बात लिखी गई । अन्य 4 बिन्दु भी मिलते जुलते हैं। कमाल की बात है कि कांग्रेस के घोषणा पत्रों में महिलाओं के खाते में पांच बिन्दु ही निश्चित हैं। क्या इतने से महिलाओं की समस्याएं समाप्त हो जाएंगी? सच तो यह है कि महिलाओं की विभिन्न समस्याओं की ओर विशेष ध्यान ही नहीं दिया गया है। वरना समस्याएं स्थायी कैसे होतीं पाच वर्ष शासन करने के बाद भी लगभग उन्हीं पुराने बिन्दुओं को घोषणा पत्र में डालने की विवशता क्यों पिछली घोषणाओं में से कितनी पूरी हुई, इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। दूसरी प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी है भाजपा। इस दल ने भी संसद में महिला आरक्षण को ही प्रथम घोषणा बनाया , परन्तु भाजपा ने महिलाओं की झोली में 14 बिन्दु दिए हैं। पिछले दिनों राजस्थान, म.प्र. और छत्तीसगढ सरकारों द्वारा संचालित महिला लाभकारी योजनाओं को भी केन्द्रीय स्तर पर लेने का वादा किया गया। वहीं लैंगिग समानता के लिए समान नागरिक संहिता बनाने का वादा दुहराया गया। अन्य 12 बिन्दु भी विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के जीवन को सशक्त बनाने का संकल्प दुहराते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी (एम) ने भी अपने घोषणा पत्र में संसद में महिला आरक्षण को ही प्राथमिकता दी थी। इनके छह बिन्दुओं में आर्थिक विकास के लिए अनुदान, बलात्कार के विरूद्ध कानून, दहेज और कन्या भ्रूण हत्या का खात्मा, महिला बजट को बढाना, विधवाओं और महिला द्वारा संचालित परिवारों को विशेष सुविधा देने के वादे दुहराए गए ।
विपक्ष का काम है कि वह संसद में सत्ता पक्ष को उसके वादों का स्मरण करवाए। एक और बात की ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है। महिलाओं की क्षेत्र विशेष की समस्याएं भी होती हैं। अर्थात् उनकी सरकारों से अपेक्षाएं। इस पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता। घोषणा पत्रों के निर्माण के पूर्व महिलाओं की प्रतिनिधियों को विश्वास में नहीं लिया जाता। उनसे संवाद ही नहीं होता। फिर तो घोषणाएं हैं, घोषणाओं का क्या जिन महिलाओं को मतदान का महत्व ही नहीं पता वे घोषणाएं जानने-समझने का अपना अधिकार भी नहीं समझतीं। यह स्थिति बदलनी चाहिए। घोषणापत्रों के निर्माण के पूर्व महिलाओं की प्रतिनिधियों को विश्वास में नहीं लिया जाता। उनसे संवाद ही नही होता। सत्य तो यह है कि महिला आरक्षण की चर्चा केवल दिखावटी है। कोई भी दल नहीं चाहता कि जिनका वे सदा से शोषण करते आए हैं वे उनके साथ आकर खड़ी हो जाए। इसी कारण २० साल से यह विषय मात्र चर्चा में ही है। ना कोई इसका विरोध करता है और ना खुलकर समर्थन। उसको लाने का सार्थक कदम तो बहुत दूर की बात है। उनको लगता है कि नारी यदि सत्ता में आगई तो उनकी निरंकुशता कुछ कम हो जाएगी, उनकी कर्कशता एवं कठोरता पर अंकुश लग जाएगा तथा महिलाओं पर अत्याचार रोकने पड़ेंगें । आज समय की माँग है कि नारी को उन्नत्ति के समान अवसर मिलें और खुशी-खुशी उसे उसके अधिकार दे दिए जाएँ। (भाषा एवं upscportal.com से साभार)
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1 comment:
अब प्रधानपतियों की जगह और पति भी देखने को मिलेंगे.
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