Sunday, February 21, 2010

करोड़ों किशोरियों की जिंदगी से खिलवाड़ करना चाहता है गार्डासिल का टीका

अमेरिका से लेकर जापान-आस्ट्रेलिया तक, इंग्लैंड से लेकर दक्षिण अफ्रीका तक, हर महाद्वीप की हर किशोरी निशाने पर है। निशाना साध रही हैं, दो बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां। जहां मर्क के पास गार्डासिल है तो ग्लेक्सो स्मिथ क्लाइन के पास सर्वेरिक्स। ये टीके हैं। हर इंजेक्शन की कीमत तीन हजार रुपये से अधिक है और इन्हें हर लड़की को तीन बार दिया जाना है। इनका प्रचार इन्हें गर्भाशय के मुखद्वार पर होने वाले कैंसर से बचाव का टीका कहकर किया जा रहा है।
सन 2006 से ये टीके अमीर देशों की लड़कियों को, विशेषकर आस्ट्रेलिया, अमेरिका व इंग्लैंड में व्यापक रूप से लगाए गए और 2009 में इनकी घुसपैठ भारत में भी हो चुकी है। विकसित देशों में पहले बाजार गर्म हुआ। आखिर कौन अपनी बच्ची को कैंसर से नहीं बचाना चाहेगा? साथ ही दोनों कंपनियों ने सरकार से पैरवी करने व डॉक्टरों को प्रभावित करने का कोई उपाय नहीं छोड़ा। दो साल में इन टीकों के कई विपरीत असर भी सामने आए। संदिग्ध हालात में कुछ स्वस्थ लड़कियां मौत, गठिया, लकवे, निरंतर कमजोरी, थकान की शिकार हुईं, अस्पताल में भर्ती हुईं, बेहोशी और मिर्गी के दौरे आए, थक्के जमने से रक्ताघात हुआ। यह हाल बिरली नहीं, टीके लेने वाली 50 प्रतिशत लड़कियों का रहा, जिनमें से सात प्रतिशत गंभीर पाई गईं। नतीजतन दो साल में बिक्री घट भी गई और अब कंपनियां तीसरी दुनिया की ओर रुख कर रही हैं।
ताज्जुब है कि इसे कैंसर से बचाव का टीका कहा जा रहा है। वास्तव में यह कैंसर के कई कारकों में से एक, ह्यूमन पेपिलोमा वाइरस (एचपीवी) आंशिक रूप से ही बचाव कर सकता है। इस वायरस की 100 से भी अधिक प्रजातियां हैं और उनमें से 13 कैंसर रोगियों में पाई जाती हैं। कथित रूप से प्रजाति संख्या 16 व 18 सत्तर प्रतिशत केसों में मिलती हैं और इन्हीं दो के संक्रमण से ये टीके बचाव करने की क्षमता रखते हैं। पर यह नहीं मालूम कि टीके के बाद बचाव कितनी अवधि तक कायम रहेगा। क्या यह भी संभव है कि बाकी प्रजातियां अधिक हावी हो जाएं और कैंसर कम होने की संभावना ही न बनने दे! ये सवाल स्वयं अमेरिका की लाइसेंस देने वाली एजेंसी ने उठाए हैं, लेकिन अफसोस, लाखों टीके लगाए जाने के बाद।
एक बार फिर इन टीकों की सीमा पर गौर करें तो हम पाते हैं कि टीके की परिकल्पना में गर्भाशय के मुखद्वार के कैंसर को पूरी तरह वायरस जनित मान लिया गया है। यह गलत है क्योंकि यौन आचरण, धूम्रपान, एड्स, खान-पान में कमी आदि से भी यह कैंसर संबंध रखता है। दूसरी अवधारणा में कमी यह है कि इस वायरस को पूर्णतया यौनबाधित रोग के रूप देखा जा रहा है। ऐसे में यह रणनीति बनाई गई है कि यौन संबंध शुरू होने के पहले किशोरावस्था में ही टीका लगा दिया जाए तो लड़कियां संक्रमण व अंततः कैंसर से बची रहेंगी।
गर्भाशय का कैंसर आम तौर पर 48-50 वर्ष की उम्र में होता है। अगर वयस्क औरतें नियमित रूप से जांच कराती रहती हैं तो कैंसर के पूर्व की अवस्था ही पकड़ में आ जाती है और आसानी से अधिकांश केसों में कैंसर की नौबत नहीं आती। इसके लिए पैप स्मीअर नाम की जांच की जाती है, जो 90-95 प्रतिशत सही बैठती है व जिस पर 500-700 रुपये तक खर्च आता है। अगर कोई लड़की आज टीका लगवा भी लेती है तो उसे बाद में पैप स्मीअर तो कराना ही होगा, क्योंकि मात्र दो वाइरस प्रजातियों से ही उसे सुरक्षा मिलेगी। यहां यह जानना भी जरूरी है कि प्रायः हर औरत को यह वाइरस ग्रस्त करता है पर इसके कोई लक्षण नहीं हैं व आमतौर पर संक्रमण अपने आप ठीक भी हो जाता है। ऐसे में टीकों की सार्थकता नापने के लिए हमें उस पर होने वाले खर्च व उसके विपरीत असर की तुलना कैंसर केसों में आने वाली कमी व रोग निदान पर घटे हुए खर्च से करनी होगी।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि आज इसे 10-15 वर्ष की लड़की को लगाया जाएगा, जिसे शायद उसका फायदा तीस साल बाद मिलेगा। ऐसे में टीके के विपरीत असर पर ज्यादा ध्यान देना जरूरी है। शरीर के हर तंत्र व प्रक्रिया पर इसके असर पाए गए हैं। दिमाग, रक्त, मांसपेशियां, स्नायुतंत्र, रोग प्रतिरोधक प्रणाली, श्वसन प्रणाली सभी को ये टीके प्रभावित करते हैं। अमेरिका में सरकार ने एक संस्थान सुनिश्चित कर रखा है, जिसके जरिये लोग स्वेच्छा से टीकारण के बुरे परिणाम दर्ज कराते हैं। एचपीवी के टीकों के बुरे परिणाम बड़ी संख्या में इसमें दर्ज हुए। कुल बुरे परिणामों के 25 प्रतिशत केस महज गार्डासिल के थे। गार्डासिल की तुलना में दूसरे टीकों की संख्या बहुत ही ज्याद है। उदाहरण के लिए बच्चों को 48 टीके लग रहे हैं। बचपन की बीमारियों के लिए। साथ ही, यह भी देखना जरूरी है कि दूसरे टीकों की अपेक्षा इसमें गंभीर असर कितने ज्यादा हैं। दिमागी ज्वर के टीके की तुलना में गार्डासिल से खून में थक्के जमने और हृदयाघात की आशंका चारगुना, सदमे की 15गुना और लूपस (चर्म यक्षमा) की 33 गुना ज्यादा हो जाती है।
जो टीका शरीर की हर प्रणाली को गड़बड़ा देता है, क्या उससे प्रजनन प्रणाली अछूती रहेगी? हालांकि मर्क ने यह देखना तक जरूरी नहीं समझा कि मां के दूध से टीके के अंश बच्चों तक किस मात्रा में पहुंचते हैं व क्या असर डालते हैं। छोटे बच्चों की बात करना जरूरी है क्योंकि 0-8 साल पर शोध नहीं किया गया है। फिर भी शोध के दौरान यह टीका धात्री माताओं को दिया गया और तत्काल असर श्वसन प्रणाली पर तो नजर आ गया क्योंकि ऐसे बच्चों को फेफड़ों के ज्यादा संक्रमण हुए। इन टीकों को लाइसेंस 9-27 वर्ष की उम्र की लड़कियों व औरतों के लिए मिला हुआ है। यहीं नहीं, कई गर्भवती औरतों को भी शोध में पर्याप्त सावधानी न रखने के कारण यह टीका लगा दिया गया और पाया गया कि अगर गर्भ धारण व टीके लगने के बीच तीस दिन का ही अंतर था तो बच्चों में जन्मजात विकृतियां बढ़ गईं। इन औरतों में स्वतः स्फूर्त गर्भपात भी अधिक हुए। चूंकि रणनीति किशोरियों के टीकाकरण की है, यह सवाल भी महत्व रखता है कि हर प्रणाली को प्रभावित करने वाला यह टीका विकसित हो रही प्रजनन प्रणाली पर क्या असर डाल सकता है। इस बारे में अभी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। अर्थात बात करोड़ों लड़कियों द्वारा आज व निकट भविष्य में गंभीर खतरे मोल लेकर उन्हें एक प्रकार के कैंसर से आंशिक बचाव करने के टीकारण की है। अगर यह कैंसर बहुत ज्यादा मात्रा में पाया जाता तो शायद इस टीकारण को तार्किक ठहराया भी जा सकता। बहरहाल, गर्भाशय के मुख कैंसर की गिनती भारत के प्रमुख कैंसरों में नहीं आती व औरतों के कैंसर में भी इसका नंबर स्तन कैंसर के पीछे ही है।
तब सवाल उठता है कि यह व्यापक खिलवाड़ कौन कर रहा है, और लड़कियों को नहीं, तो किसे इन टीकों से फायदा हो रहा है? ग्लेक्सोस्मिथक्लाइन व मर्क दोनों ही कंपनियों ने यह तकनीक अमेरिका के नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट से खरीदी है। फर्क सिर्फ इतना है कि मर्क की गार्डासिल में दो घटक दो प्रकार के एचपीवी से बचाव करते हैं, जो कैंसर से संबंधित हैं और दो प्रकार के उन एचपीवी से बचाव करते हैं जो जननांगों के मस्सों से संबंधित हैं। ग्लेक्सोस्मिथक्लाइन का सर्वेरिक्स नामक टीका मात्र दो कैंसर वाले एचपीवी से बचाव करता है। दोनों टीके अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए एल्युमिनियम का सहारा लेते हैं। अतः इनके विपरीत असर भी एक-से हैं। ये कंपनियां प्रतिद्वंद्वी नहीं हैं, क्योंकि इनके बीच पहले से ही मुनाफा बांटने का करार हो रखा है। अर्थात एक बेचे या दूसरा, फायदा दोनों को ही होना है। इसके अलावा मर्क ने उत्पादन प्रक्रिया आस्ट्रेलिया की एक कंपनी से तैयार करवाई। मुनाफे का एक अंश सीएसएल लिमिटेड नामक इस कंपनी को व एक अंश नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट को भी जाता है।
मर्क ने अमेरिका में गार्डासिल का प्रचलन बढ़ाने के जबरदस्त कदम उठाए। यहां तक कि कुछ राज्यों ने तो इसे अनिवार्य भी बना दिया कि टीके लगवाए बगैर छठीं कक्षा में भर्ती नहीं होगी, अमेरिकी नागरिकता नहीं मिलेगी आदि। इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया के साथ-साथ यूरोप के कई देशों में सरकारी तंत्र को काबू में करके इन टीकों का बाजार तेजी से विकसित किया गया। डॉक्टरों को प्रलोभन दिए गए, नारी समूहों को अनुदान दिया गया, यहां तक कि मर्क की सहायक यूरोपीय कंपनी ने तो इस टीके से संबंधित वैज्ञानिक को चिकित्सा का नोबल पुरस्कार दिलाने तक की पैरवी कर डाली। मर्क की हड़बहड़ी की वजह उसके भूतकाल के काले कारनामे थे। 1999 में उसने गठिया रोग के दर्द निवारण की एक खतरनाक दवा, जानबूझ कर खतरे छिपाते हुए बाजार में लाई थी, जिसके कारण कई लोग हृदयाघात के शिकार हुए थे। उनके दावों से मर्क को करोड़ों का नुकसान हुआ था। पैसों की अन्य कई गड़बड़ियों के कारण अमेरिका के कर विभाग से भी केस दबवाने के लिए उसने सैकड़ों करोड़ का समझौता किया था। मरीजों के दावों व टैक्स संबंधी करार ने मर्क की हालत पतली कर दी थी और ऊपर से उसकी अच्छी बिक्री वाली दवाओं के पेटेंट भी समाप्त हो रहे थे। ऐसे में गार्डासिल ही उसकी नैया पार कर सकती थी। हर मोड़ पर मर्क ने हर प्रकार के दांव-पेच लगाए। जहां आम टीकों को लाइसेंस मिलने में तीन साल लग जाते हैं, वही गार्डासिल का लाइसेंस छह महीने में मिल गया। बाजार में आते ही उसका कैंसर के बचाव की दवा के रूप में झूठा प्रचार किया गया। गर्भाशय के मुख कैंसर के खतरे को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया गया। अमेरिका में टीकों की कीमत सेंटर फार डिजीज कंट्रोल (बीमारी नियंत्रक केंद्र) करता है। गार्डासिल की कीमत तय करने के लिए खर्च को आधार नहीं बनाया गया वरन गार्डासिल से बनने वाली अनुमानित बीमारी पर आज हो रहे खर्च में बचत के आधार पर उसकी कीमत तय की गई। जब गार्डासिल के विपरीत असर सामने आने लगे तो फिर सेंटर फार डिजीज कंट्रोल (सीडीसी) हरकत में आया और उसने कह दिया कि विपरीत असर से गार्डासिल का कोई संबंध नहीं है। क्या सच था, क्या झूठ, यह तो शायद कभी बाहर नहीं आएगा पर ओबामा के राष्ट्रपति बनने पर सीडीसी की प्रमुख ने अपना पद छोड़ दिया व 21 दिसंबर 2009 को वह मर्क की मार्केटिंग की प्रमुख बना दी गईं।
जितनी तेजी से गार्डासिल ने पेंगें भरीं, उतनी ही तेजी से अमेरिका में वह पलटी भी खाने लगी। सन 2009 में उसकी बिक्री में 30 प्रतिशत गिरावट दर्ज हुई। टीके के बाजार की दो खूबिया हैं। पहली तो यह कि वह व्यापक है। दवा तो सिर्फ बीमार खाते हैं। टीका तो हर किसी को लग जाता है। दूसरे अमेरिका के टीके संबंधी उत्तरदायित्व के कानून कंपनियों के हित में हैं। गलत टीके का हर्जाना कंपनी नहीं भरती, सरकार देती है और उसे उपभोक्ताओं से ही बटोरा जाता है।
विकसित देशों में दाल न गलती नजर आने से अब ध्यान तीसरी दुनिया, यानी भारत जैसे विकासशील देशों पर केंद्रित किया जा रहा है। जनहित में जारी ग्लेक्सोस्मिथक्लाइन के बड़े-बड़े टीवी व अखबारों में जारी विज्ञापन सभी ने देखे होंगे। ये उन उपभोक्ताओं पर केंद्रित हैं, जो हजारों में खर्च कर सकते हैं। बाकी 90 प्रतिशत आबादी तक पहुंचने में बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन मदद कर रहा है। आज-कल हमारी सरकार आंध्र प्रदेश व गुजरात के आदिवासी इलाकों में गार्डासिल लगाने के लिए अध्ययन कर रही है। देश के दस बड़े संस्थान इस शोध की तैयारी में हैं कि क्या तीन के बदले दो इंजेक्शन से काम चल जाएगा। सारा विवेक ताक पर रख दिया गया है क्योंकि सभी लड़कियों को टीका लगाने में केंद्रीय स्वास्थ्य बजट से ढाई गुना ज्यादा राशि लग जाएगी। ऊपर से टीका-जनित बीमारी पर खर्च अलग होगा। गोरी हो या काली, सवर्ण हो या आदिवासी, अमीर हो या गरीब, हर लड़की को घेरे में लेकर बराबरी से खतरे में डाला जा रहा है। वह भी एक ऐसे कैंसर के डर से, जिससे बचाव के लिए पुख्ता व निरापद तरीके पहले से ही मौजूद हैं।


1 comment:

Arvind Mishra said...

बहुत उपयोगी जानकारी -बहुत आभार !